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महावीर : मेरी दृष्टि में
कितना शान्त है, कोन मादमी प्रत्येक चीज से कितना सुख लेता है। समझ लें कि एक आदमी फूल के पौधे के पास खड़ा हुआ है, गुलाब के पास खड़ा हुआ है तो दिखता है कि वह अपना हाथ काटे में चुभो रहा है। वह बादमी हमें नहीं दिखेगा जो फूल की सुगन्ध ले रहा है। वह भी दिख सकता है लेकिन हमने उसे देखा नहीं है। अब तक हमने उस आदमी को आदर दिया है जिसने गुलाब के कांटे को हाथ में चुभो लिया है और खून बहा लिया है। हमने कहा कि यह आदमी अद्भुत है। हमने उस आदमी को आदर दिया। जिसने फूल की सुगंध ली है हमने कहा कि यह आदमी तो साधारण है, फूल की सुगंध कोई भी लेता है। असली सवाल तो काटे चुभोने का है। मगर वास्तविक स्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है। कांटा चुभोने वाला भी बीमार है, रुग्ण है और काटा चुभोने वाले को आदर देने वाला भी खतरनाक है, रुग्ण है। फूल सूंघने वाला भी स्वस्थ है और फूल सूंघने वाले को सम्मान देने वाला भी स्वस्थ है। .
एक ऐसा समाज चाहिए जहाँ सुख का समादर हो, दुःख का अनादर हो। लेकिन हुमा उल्टा है और इस समाज ने इस तरह का धर्म पैदा कर लिया कि इस जगत् में जो सबसे ज्यादा सुखी लोग ये उनको सबसे ज्यादा दुःखी लोगों की श्रेणी में रख दिया। इसलिए महावीर जैसे व्यक्ति को सर्वाधिक सुखी लोगों में से गिना जाना चाहिए। यानी उनके मानन्द की कोई सीमा लगानी मुश्किल है। यह आदमी चौबीस घंटे मानन्द में है। लेकिन हमारी त्याग की दृष्टि ने वह सारा मानन्द क्षीण कर दिया। हमने यह कहना शुरू किया कि यह मादमी इतने मानन्द में इसलिए है क्योंकि इसने इतना-तना त्याग किया। जो इतनाइतना त्याग करेगा वह इतने आनन्द में हो सकता है लेकिन बात उल्टी है । यह बादमी इतने बानन्द में है इसलिए इससे इतना त्याग हो गया। यह त्याग हो जाना इतने बानन्द में होने का परिणाम है। कोई बादमी इतने भानन्द में होगा तो उससे इतने त्याग हो जाएंगे। लेकिन हमने उल्टा पकड़ा। हमने पकड़ा कि इतने-इतने त्याग किए तो महावीर इतने मानन्द में हुए। तुम भी इतने त्याग करोगे तो इतने बानन्द में हो जाबोगे । बस बात एकदम गलत हो गई।
त्याग करने से कोई मानन्द में नहीं हो जाता। हाप के पत्पर छोड़ देने से हीरे नहीं आ जाते। लेकिन हीरे आ जाएं तो पत्थर छूट जाते है। त्याग पीछे है, पहले नहीं। और अगर महावीर को हम इस भाषा में देखें और मुझे लगता है कि यही सही भाषा है उनको देखने की, तो हमारा धर्म के प्रति, जीवन के प्रति दृष्टिकोण अलग होगा। महावीर ने पर नहीं छोड़ा, बड़ा घर पायां ।