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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ बाएं-दाएं चल रहे हैं, यह कोई सौभाग्यपूर्ण बात नहीं। लोगों को बाएं-दाएं चलना चाहिए और पुलिस वाले को विदा होना चाहिए । व्यर्थ ही एक आदमी को हम परेशान कर रहे हैं कि वह लोगों को बाएं-दाएं चलता रहे । और लोग कैसे बुद्धिहीन हैं कि अगर चौरास्ते पर एक पुलिसवाला नहीं है तो वे बाएं-दाएं भी नहीं चलेंगे। इसका मतलब है कि समाज ने बुद्धि पैदा करने की कोशिश ही नहीं की है अब तक, और पुलिस वालों से काम ले रही है विवेक का। करोड़ों निकल रहे हैं एक सड़क से और एक पुलिस वाला स्थानापन्न हो गया है, करोड़ों लोगों के विवेक का । वह पुलिस वाला भी विवेकहीन आदमी है। वह किसी तरह चला लेता है बाएं दाएं । लेकिन फर्क क्या पड़ता है ? बस बाएं दाएं चलना हो जाता है और एक्सीडेंट कुछ कम होते हैं सड़क पर । लेकिन अगर हमने समझा है कि विवेक की कमी इसने पूरी कर दी तो हम गलती में हैं । यह सिर्फ सूचक है कि विवेक नहीं है और हमें कोशिश करनी चाहिए कि विवेक आ जाए ताकि हम इसको विदा कर दें। नीति, संयम, नियम धीरे-धीरे विदा हो सके ऐसा विवेक हमें जगाना चाहिए। जिस समय में कोई नियम नहीं होगा, कोई संयम नहीं होगा, लोग विवेक से जोते होंगे, वह पहली बार सही समाज होगा । नहीं तो समाज का सिर्फ धोखा चल रहा है। प्रश्न : मेरी इसमें सहमति है जो आप कह रहे हैं। जहां मतमेव मुझे लगा यानी विचारकों में मतभेद, वह यह कि जिसको आप कह रहे हैं नियम, यद्यपि वह अन्ततोगत्वा छोड़ने के लिए है और व्यर्थ है, उसे वह व्यवहार दृष्टि नाम देते हैं। तो उस व्यवहार दृष्टि की कोई आंशिक उपयोगिता है या नहीं है, इस पर मतमेव चलता है। यह विचारणीय है। उत्तर : वह चलेगा उनमें क्योंकि विचार द्रष्टा नहीं हैं। और वह जो चल रहा है जैसा कि उन्होंने मान रखा है कि एक व्यवहार दृष्टि और एक निश्चय दृष्टि, ऐसी कोई चीज नहीं होती। दृष्टि तो एक ही है-निश्चय दृष्टि । व्यवहार की दृष्टि कहना ऐसा ही है जैसे कि यह कहना कि कुछ लोगों की आंख की दृष्टि होती है, कुछ लोगों की मन्धी दृष्टि होती है। हम कहें कि अन्धे की भी आंख तो होती है, सिर्फ देखती नहीं। और आँख वाले की भी आँख होती है, सिर्फ देखती है, इतना फर्क होता है, इतना ही फर्क होता है, बाकी आँख तो • दोनों में ही होती है । तो एक अंधी आँख होती है, एक देखने वाली बांस होती है । व्यवहार-वृष्टि अन्वे की मांख है । वह वृष्टि है ही नहीं । दृष्टि तो एक ही है जहाँ से दर्शन होता है। वह निश्चय दृष्टि है।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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