________________
महावीर : मेरी दृष्टि में कि यह
व्यवहार की जो सारी बातचीत है, और ऐसा दो हिस्से करना, भी एक दृष्टि है और इसकी भी जरूरत है- यह सिर्फ अन्धे अपने को तृप्ति देने की कोशिश कर रहे हैं । यानी अंधा यह मानने को भी राजी नहीं कि मैं अन्धा हूँ। वह कहता है कि मेरा अन्धा होना भी बहुत जरूरी है। आँख की तरफ जाने के लिए मेरा अन्धा होने की बड़ी आवश्यकता है । वह यह कह रहा है । कोई दृष्टि नहीं हैं दो । दृष्टि तो एक ही है । व्यवहार-दृष्टि सिर्फ समझौता है और अन्धों के विचार हैं अपने । अन्धों के भी विचार होते हैं। आंख मिल गई वहां से दर्शन शुरू होता है, विचार खत्म होता है । वहाँ कोई सोचता नहीं, वहां देखता है ।
और ये जो दो टुकड़े हुए इन दो टुकड़ों ने बड़ा नुकसान किया है । क्योंकि वह व्यवहार दृष्टि वाला कहता है कि यह भी जरूरी है । पहले तो इसको पूरा करना पड़ेगा । फिर, इसके बाद दूसरी बात उठेगी - साधते - साधते निश्चय दृष्टि उपलब्ध होगी, इससे ज्यादा गलत बात नहीं हो सकती । वास्तव में बात यह है कि व्यवहार दृष्टि छोड़ते-छोड़ते निश्चय दृष्टि उपलब्ध होगी । साधने का सवाल ही नहीं छोड़ने का सवाल है। यानी अन्धे को साधते साधते आँख मिलेगी, ऐसा नहीं है । अंधेपन को छोड़ते-छोड़ते आँख मिलेगी । व्यवहार दृष्टि छोड़नी है क्योंकि यह दृष्टि नहीं, दृष्टि का धोखा है । उपलब्ध तो निश्चय दृष्टि करनी है । इसलिए मैं ये दो शब्द भी लगाना पसन्द नहीं करता क्योंकि वह ' निश्चय' लगाना बेईमानी है वह तो व्यवहार के खिलाफ लगाना पड़ता है। इसलिए मैं कहता हूँ अंधापन छोड़ना है, दृष्टि उपलब्ध करनी है; निश्चय का क्या सवाल है ? ऐसी भी कोई दृष्टि होती है, जो अनिश्चित हो । फिर उसको दृष्टि कहना फिजूल है । और व्यवहार की कोई दृष्टि नहीं होती । जैसे कि एक अन्धा आदमी है । टेक-टेक कर रास्ता बना लेता है,
वह अपनी लकड़ी और कहता है कि
दरवाजा खोज लेता है
१४२
।
मुझे लकड़ी की बड़ी जरूरत है लेकिन उसे ध्यान रखना चाहिए । लकड़ी की जरूरत है तब हम उससे कहेंगे कि तुम
तुम्हें पता
ही नहीं कि आँख मिलने से क्या होता है । व्यवहार दृष्टि हमारी स्थिति है अन्धेपन को । निश्चय दृष्टि हमारी सम्भावना हैं आंख की । हमें व्यवहार दृष्टि
को तोड़ना है ताकि निश्चयं दृष्टि मानी सम्यक् दृष्टि हमें उपलब्ध हो सके ।
ठीक ही कहता है क्योंकि अगर वह कहे
कि आँख मिल
वह अन्धा है ।
जाए तो भी
फिर पागल हो
।