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________________ ..१४० ' . महावीर : मेरी दृष्टि में का नाम है । व्यवस्था वजनी और व्यक्ति कमजोर है । व्यवस्था छाती पर बैठी है और व्यक्ति नीचे दबा है। जिस व्यक्ति की में बात कर रहा हूँ और वह बन जाए अगर विवेकपूर्ण व्यक्ति, वोतराग चित्त से भरा हुआ, जीवन के आनन्द से भरा हुआ, तो भी व्यवस्था होगी। लेकिन व्यक्ति की छाती पर नहीं, व्यक्ति के लिए ही व्यवस्था होगी। अभी व्यवस्था के लिए व्यक्ति हो गया है। और तब भी समाज होगा। लेकिन तब समाज दो व्यक्तियों, दस व्यक्तियों, हजार व्यक्तियों के बीच के अन्तःसम्बन्ध का नाम होगा । व्यक्ति केन्द्र होगा, समाज गौण होगा और समाज केवल हमारे अन्तर्व्यवहार की व्यवस्था होगी। और विवेकशील व्यक्ति का अन्तव्यवहार किसी बाहरी समय और नियम से नहीं चलेगा, एक आन्तरिक अनुशासन से चलेगा। जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक समाज जैसे चलता है चलेगा। यह ऐसा ही है जैसे हम कहें कि सब लोग स्वस्थ हो जाएं तो इन डाक्टरों का, अस्पतालों का क्या होगा? वह स्वस्थ रह जाते हैं तो उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाती क्योंकि वह अच्छा काम नहीं है जो डाक्टर और अस्पताल को करना - पडता है । अच्छा लग रहा है क्योंकि हम बीमार होने का काम किए चले जाते है । यह अच्छा नहीं है क्योंकि हम जो गलत करते हैं उसको पोंछने का काम करना पड़ता है सिर्फ। और तो कुछ करना नहीं पड़ता। तो जैसे-जैसे विवेक विकसित हो, वीतरागता विकसित हो, समाज होगा, अन्तःसम्बन्ध होंगे। लेकिन वह बड़े गौण हो जाएंगे, व्यक्ति प्रमुख हो जाएगा और उसका अन्तर अनुशासन असली बात होगी। इसलिए मेरा कहना यह है कि समाज की व्यवस्था में व्यक्ति को संयम देने की चेष्टा कम होनी चाहिए; विवेक देने की व्यवस्था ज्यादा होनी चाहिए । विवेक से संयम आएगा और संयम से विवेक कभी नहीं आता है। प्रश्न : पर जब तक विवेक नहीं संयम की आवश्यकता मान लीजिए ? उत्तर : बनी ही रहेगी। प्रश्न : महावीर भी ऐसा ही समझते थे ? उत्तर । समझेंगे ही। इसके सिवाय कोई उपाय हो नहीं। यानी जब तक विवेक नहीं है तब तक किसी न किसी तरह के नियमन की व्यवस्था बनी ही रहेगी। लेकिन यह ध्यान रहे कि किसी भी नियम की व्यवस्था से विवेक आने वाला नहीं, इसलिए विवेक को जगाने को सतत कोशिश जारी रखनी पड़ेगी। संयम और नियम की व्यवस्था को सिर्फ आवश्यक बुराई समझना होगा। वह गौरव की बात नहीं। चौरास्ते पर एक पुलिस वाला खड़ा है, इसलिए लोग
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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