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महाबीर । मेरी एण्टि में
माशा नहीं रह पाती और बामे कोई उपाय भी नहीं रह जाता मवह जाएगा कहाँ ? फिर वह अपने में लौटता है । जिस दिन दुःख का पूर्ण साक्षात्कार होता है, उसी दिन वापसी शुरु हो जाती है। उसी दिन व्यक्ति लोटने लगता है। इसे समझ लेना।
. दुःख से भागोगे तो सुख में पहुंच पायोगे । दु. जामोगे तो मानन्द में पहुँचगानोगे । दुःला से नहीं भागे, दुम्स में खड़े हो गए, दुःख को पूरा देखा और दुःख को साक्षात् किया तो रूपान्तरण शुरू हुना। क्योंकि जैसे ही दुःख का पूर्ण सामात्कार हुमा, हम वही फिर कैसे कर सकेंगे जिससे दुःख पाए । फिर हम उन्हीं डंगों से कैसे जी सकेंगे जिनसे दुःस बाता है। फिर हम उन्हीं वासनाओं, उन्हीं तृष्णाओं में कैसे फिरेंगे जिनका फलाख है। फिर हम ये बीज कैसे गोएंगे जिनके फलों में दुःख आता है। लेकिन दुःख को हमने कभी देखा नहीं। दुमका साक्षात् मानन्द की यात्रा बन जाता है। पुर कहते है यह किया तो इससे यह हवा यह मत करो, उससे यह नहीं होगा। ऐसा नियम है। मैंने गाली दी, गाली लोटी। मैंने दुःख दिया, दुःख पाया। अब अगर इस दुःख का पूरा-पूरा बोष मुझे हो जाए तो कल मैं गाली नहीं दूंगा कल मैं दु:ख नहीं पहुंचाऊंगा क्योंकि पहुंचाया हुआ दुल वापिस लौट जाता है और तब दुःख की सम्भावना क्षीण हो जाती है। इसी तरह जीवन के प्रत्येक विकल्प पर कैसे-कैसे दुःख पैदा होता है, वह मुझे दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो कोई भादमी दुःख में कभी नहीं उतरता।
सब बादमी सुख की नाव पर सवार होते है, दुःख की नाव पर कोई सवार नहीं होता। कौन दुःख की नाव पर सवार होने को राजी होगा। अगर पक्का , पता है कि यह नाव दुःख के घाट उतार देगी तो इस पर कौन सवार होगा। हम दुःख की नाव में सवार होते है लेकिन पाट सदा सुखका होता है। नाव अगर राह में कष्ट भी देती है, डूबने का हर भी है तो भी कोई फिक्र नहीं। घाट के उस पार सुख है। लेकिन दुःख की नाव सुख के घाट पर कैसे पहुंच सकती है ? बस में दुःख देने वाला साधन सुख का साथी कैसे बन सकता है ? बसल में प्रथम कदम पर पो हो रहा है, वही अन्तिम पर भी होगा। अगर मैने ऐसा कदम उठाया है जो अभी पुःख दे रहा है तो यह कैसे सम्भव है कि यही कदम का और भागे चलकर सुख देगा। इतना ही सम्भव है कि कल बोर मागे बहार पुल देगा। क्योंकि बाज जो छोटा है, कल और बड़ा हो जाएगा । कल