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प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १२
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अव्यवस्था पैदा कर देता है और नियन्ता को मानने वाला भी नियम के ऊपर किसी नियन्ता को स्थापित करके ।
महावीर पूछते हैं कि वह भगवान् नियम के अन्तर्गत चलता है या नहीं । अगर नियम के अन्तर्गत चलता है तो उसकी जरूरत क्या है ? यानी अगर भगवान् आग में हाथ डालेगा तो उसका हाथ जलेगा कि नहीं ? अगर जलता है तो वह भी वैसा ही है जैसे हम हैं और अगर नहीं जलता है तो ऐसा भगवान् खतरनाक है । क्योंकि हम भगवान् से दोस्तो बनाएंगे तो हम आग में हाथ भी डालेंगे और शीतल होने का उपाय भी कर लेंगे । इसलिए महावीर कहते हैं कि हम नियम को इन्कार नहीं करते क्योंकि नियम का इन्कार करना अबैज्ञानिक है । नियम तो है मगर हम नियन्ता को स्वीकार नहीं करते क्योंकि नियन्ता की स्वीकृति नियम में बाधा डाल देती हैं। तो जो विज्ञान ने अभी पश्चिम में तीन सो वर्षो में उपलब्ध किया है वह यह है कि विज्ञान सीधे नियम पर निर्धारित है, सीधे नियम की खोज पर । विज्ञान कहता है कि किसी भगवान् से हमें कुछ लेना-देना नहीं। हम तो प्रकृति का नियम खोजते हैं। ठीक यही बात अढाई हजार साल पहले महावोर ने चेतना के जगत् में कही है कि नियन्ता को हम बिदा करते हैं, चार्वाक को हम मान नहीं सकते। वह सिर्फ अव्यवस्था है, अराजकता है । दोनों के बीच में एक उपाय है वह यह कि हम मान लें कि नियम शाश्वत है, अखण्ड है और अपरिवर्तनीय है । उस अपरिवर्तनीय नियम पर ही धर्म का विज्ञान खड़ा हो सकता है। लेकिन उस अपरिवर्तनीय नियम में पीछे के व्याख्याकारों ने जो जन्मों का फासला किया, उसने फिर गड़बड़ पैदा कर दी । यह तीसरी गड़बड़ थी ।
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पहली गड़बड़ थी चार्वाक की, दूसरी गड़बड़ थी भगवान् के भक्त की, तीसरी गड़बड़ थी दो जन्मों के बीच में अन्तराल पैदा करने वाले लोगों की । महावीर को फिर झुठला दिया गया । यह असम्भव ही है कि एक कर्म अभी हो और फल फिर कभी हो । फल इसी कर्म की श्रृंखला का हिस्सा होगा जो इसी
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कर्म के साथ मिलना शुरू हो जाएगा। हम जो भी करते हैं उसे भोग लेते हैं । और अगर यह हमें पूरी सघनता में स्मरण हो जाए कि हमारे जीवन में और हमारे कर्म में अनिवार्य अन्तर नहीं पड़ने वाला है, मैं जो भी कह रहा हूँ वही भोग रहा हूँ, या मैं जो भोग रहा है, वही मैं जरूर कर रहा हूँ तो बात स्पष्ट हो जाती है । एक आदमी दुःखो है, एक आदमी अशान्त है और वह आपके पास आता है और पूछता है : शान्ति का रास्ता चाहिए । अशान्त है तो वह सोचता
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