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________________ ३७४ . महावीर : मेरी दृष्टि में है कि किसी पिछले जन्म का कर्मफल भोग रहा है। तो उसके पास बनकिया करने का कोई उपाय नहीं है । मगर सही बात यह है कि जो मैं अभी कर रहा हूँ उसे अनकिया करने की अभी मेरी सामर्थ्य है। अगर मैं आग में हाथ डाल रहा हूँ और मेरा हाथ जल रहा है, और अगर मेरी मान्यता यह है कि पिछले जन्म के किसी पाप का फल भोग रहा हूँ तो मैं हाथ डाले चला जाऊंगा क्योंकि पिछले जन्म के कर्म को मैं बदल कैसे सकता हूँ ? घर आग में हाथ डालूंगा और जलूंगा और गुरुओं से पूडूंगा : शान्ति का उपाय बताइए, क्योंकि हाथ बहुत जल रहा है। और वे गुरु जो यह मानते हैं कि पिछले जन्म के फल के कारण जल रहा है वे यह नहीं कहेंगे कि हाथ बाहर खींचो क्योंकि हाथ जल रहा है । इसका मतलब यह हुआ कि हाथ अभी डाला जा रहा है और अभी डाला गया हाथ बाहर भी खींचा जा सकता है लेकिन पिछले जन्म में डाला गया हाथ आज कैसे बाहर खींचा जा सकता है ? तो हमारी व्याख्या ने कि अनन्त जन्मों में फल का भोग चलता है मनुष्य को एकदम परतन्त्र कर दिया है । परतन्त्रता पूरी हो गई क्योंकि पीछा उसका बंधा हुआ हो गया। अब उसमें कुछ किया नहीं जा सकता। किन्तु मेरा मानना है कि सब कुछ किया जा सकता है इसी वक्त, क्योंकि जो हम कर रहे हैं, वही हम भोग रहे हैं । ___ एक मित्र मेरे पास आए कोई दो या तीन वर्ष हुए। उसने कहा कि मैं बहुत अशान्त हूँ। मैं अरविन्द आश्रम गया, वहां भी शान्ति नहीं मिली। मैं रमण आश्रम गया, वहां भी शान्ति नहीं मिली। मैं शिवानन्द के यहाँ गया, वहां भी शान्ति नहीं मिली। सब धोखा-घड़ी है, सब बातचीत है, कही शान्ति नहीं मिलती। पाण्डीचेरी में किसी ने आपका नाम लिया तो वहां से सीधा यहीं चला आ रहा हूँ। तो मैंने कहा : अब तुम सीधे एकदम मकान से बाहर हो जामो इसके पहले कि तुम जाकर कहीं कहो कि वहां भी शान्ति नहीं मिली। फिर मैंने उससे पूछा कि तुम अपनी अशान्ति खोजने किससे पूछ कर गए थे? तुमने किस से सलाह ली थी। कौन है गुरु तुम्हारा? उसने कहा : कोई गुरु नहीं । अशान्ति खोजने के लिए मैंने किसी से नहीं पूछा । मैंने कहा, इस अशांति के लिए तुम खुद ही गुरु हो, पर्याप्त हो और शान्ति का हमने ठेका लिया हुआ है तुम्हारे लिए ? शान्ति तुम हमसे पूछोगे? न मिले तो हम धोखा सिद्ध हुए। मजा यह है कि अशान्ति तुम पैदा करो, शान्ति मैं तुम्हें हूँ और न दे पाऊँ तो षोखा मैं हूँ। मैंने उससे कहा कि पा करके इतना ही खोजो कि तुम्हें अशान्ति कैसे मिल रही है, बस। जिस ढंग से तुम अशान्ति पा रहे हो, उस ढंग को
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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