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________________ प्रवचन-१३ ४२५ यानी अगर मैं विचार सम्प्रेषित कर सकता हूँ तो मैंने विचार सम्प्रेषित किया और आपने पाया, इसके बीच में पल भी नहीं लगता। जिसको महावीर समय कहते हैं, पल का भी लाखवां हिस्सा, वह भी नहीं लगता। विचार समयातीत सम्प्रेषित होता है। तो उसी दिन विचार के सम्प्रेषण से ही दूसरे जीवनों से सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। महावीर, बुद्ध, जीसस, ऐसे जीवन की तलाश में हैं । सम्बन्ध स्थापित करने की परी कोशिश की गई है और कुछ बातें खोज भी ली गई है कि वह सम्बन्ध स्थापित हो सकता है, हुआ है। उस सम्बन्ध के आधार पर कामना बनती है, आशा बनती है कि पृथ्वी पर भी यह हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है । __ कल जो मैंने कहा उससे स्पष्ट हुआ होगा कि एक हो जन्म नहीं है । जन्मों की एक लम्बी यात्रा है। हम जो आज हैं, वह हम एकदम आज के हो नहीं है। हम कल भी थे, परसों भी थे। एक अर्थ में हम सदा थे किन्हीं भी रूपों में । कभी पक्षी में, कभी पत्थर में, कभी खनिज में, कभी इस ग्रह पर, कभी उस ग्रह पर। हम सदा थे। होने के साथ हम एक हैं। अस्तित्व में हमारी प्रतिध्वनि सदा थी। लेकिन मूच्छित से मूच्छित थी। अमूच्छित होती चली गई है, जागृत होती चली गई है। हममें से सभी थे। जरूरी नहीं कि महावीर से सम्बन्धित हुए, जरूरी नहीं कि महावीर के पास थे, जरूरी नहीं कि महावीर के प्रदेश में थे। लेकिन सब थे। कहीं होंगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह भी हो सकता है कि हममें से कोई महावीर के निकट भी रहा हो, उस गाँव में भी रहा हो जहाँ से महावीर गुजरे हों। जरूरी नहीं कि हम मिलने गए हों। क्योंकि महावीर गाँव से गुजरे तो कितने लोग मिलने जाते हैं इसकी कोई आवश्यकता नहीं। महावीर गांव में ठहरे भी हों और दस-बीस लोग भी मिले हों तो ठीक है । न मिले हों तब भी कोई जरूरी नहीं। हम सदा थे और हम सदा रहेंगे। मूच्छित या अमूच्छित दो बातें हो सकती हैं। अगर . मूच्छित रहे हों तो हमारा होना न होना बराबर था। जब से हम अमूच्छित होते हैं, जागते हैं, चेतन होते हैं, तभी से हमारे होने में कोई अर्थ है। और जितने हम चेतन होते चले जाते है उतना हो हमारा होना गहरा होता जाता है । उतना ही हमारा अस्तित्व प्रगाढ़, समृद्ध होता चला जाता है। शायद उस अर्थ में होना हमारा अभी भी नहीं। अभी भी बस हम है। यह जो होने की लम्बी यात्रा है, इसमें बहुत बार शरीर बदलने जरूरी है। क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, उसकी सीमा है। वह चूक जाता है। असल में कोई भी पदार्थ
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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