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________________ ४. ऐसी हालतें थी कि दिन-दिन विवेकानन्द भूखे घूमते रहते, खाने को नहीं था। या घर में इतना कम होता कि मां अकेली खा सकती या विवेकानन्द खा सकते । तो वह कहते कि आज मैं मित्र के घर निमंत्रित हूँ तुम खाना खा लो, मैं खाना खाकर लौटूंगा। और वह भूखे हंसते हुए घर आ जाते कि बहुत ही बढ़िया खाना आज मित्र के घर मिला। इतना भी नहीं था घर में उपाय, इन्तजाम । एक मित्र ने कहा कि रामकृष्ण से पूछ लो। रामकृष्ण के पास विवेकानन्द गए और कहा कि क्या करूं, गरीबी है। उन्होंने कहा कि इसमें कहने की क्या बात है ? सुबह प्रार्थना के बाद 'माँ' को कह देना कि ठीक कर दे, सब इन्तजाम कर दे। विवेकानन्द गए, प्रार्थना करके वापस लौटे। राम कृष्ण ने पूछा : कहा ? विवेकानन्द ने कहा : 'मुंह ही न खुला। क्योंकि यह बात ही मशोभन मालूम पड़ी कि प्रार्थना से भरे चित्त में पैसे को लाया जाए।' फिर दूसरे दिन, फिर तीसरे दिन ऐसा ही हुआ। भूखे हैं, रोटी नहीं मिल रही है, कर्जदार पीछे पड़े हैं। रामकृष्ण रोज-रोज पूछते हैं : 'क्यों? आज कहा? तो वह लौटकर कहते हैं : नहीं, परमहंस देव, यह नहीं हो सकेगा । क्योंकि जब मैं प्रार्थना में होता है तो इतना धनी हो जाता है कि निर्धनता क्या ? कैसी? कौन निर्धन ? और जब प्रार्थना के बाहर आता हूँ तो फिर वही निर्धन हो जाता हूँ जो था। तब मन करने लगता है कि कह दूं। लेकिन जब प्रार्थना में होता हूँ तो मुझसे धनी कोई होता ही नहीं। संकल्प जितना-जितना प्रगाढ़ होता चला जाएगा, उतना ही उसका उपयोग कम होता चला जाएगा। यह समझने जैसी बात है । असल में संकल्प के उपयोग की जो हमारी चित्तवृत्ति है वह संकल्प के न होने के कारण ही है । जैसे-जैसे संकल्प होता जाएगा घना वैसे-वैसे संकल्प का उपयोग बन्द होता चला जाएगा । इस जगत् में सिर्फ शक्तिहीन ही शक्ति के उपयोग की बात सोचते हैं । , जिनके पास शक्ति है वे कभी उसका उपयोग करते हो नहीं। क्योंकि शक्ति की उपलब्धि में ही शक्ति के अनुपयोग की सम्भावना छिपी है । आकस्मिक, अनायास कुछ हो जाए तो हो जाए लेकिन सोचते, विचारते, शक्ति का कोई उपयोग नहीं होता । मगर हमें ऐसा लगता है क्योंकि हम धन को मूल्यवान् समझते हैं । एक छोटा बच्चा है । उसके लिए खिलोना मूल्यवान् है । उसका पिता उससे कहता है कि भगवान् से मैं जो भी प्रार्थना करू हो जाता है । तो बच्चा कहता है कि मेरे लिए एक खिलौना क्यों नहीं मांग लेते। बाप कहता है। पागल, खिलोना मांग कर मा क्या करेंगे? क्योंकि बाप के लिए खिलोने बेकार हो गए है और यह
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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