________________
प्रश्नोतर - प्रवचन- ११
३३७
बिना गुजरे कभी भी समझ में नहीं आ सकती यह बात । और बिना गुजरने की जो आकांक्षा है हमारे मन में वह भय है । वह समझ नहीं आने देगा | वह डर है । वह कहता है जाओ मत उधर । लेकिन जब जाएंगे नहीं तो जानेंगे कैसे ? जीवन में जो भी हम जानते हैं वह हम जाकर ही जानते हैं। बिना जाए हम कभी नहीं जानते और अगर बिना जाए कोई रुक गया तो किसी दिन वह जाने की इच्छा ही मुसीबत बन जाएगी ।
प्रश्न : भोगने से समझ को प्राप्त हो सकता है ?
उत्तर : बिल्कुल प्राप्त हो सकता है । कोई सवाल ही नहीं है। हम जब भोग रहे हैं तभी हम समझपूर्वक भोग सकते हैं । गैर समझपूर्वक भी भोग सकते हैं। अगर हम समझपूर्वक भोगते हैं तो हम ब्रह्मचर्य की ओर जाते हैं । अगर गैर समझपूर्वक भोगते हैं तो हम उसी में घूमते हैं । सवाल भोगने का नहीं है, सवाल जागे हुए भोगने का है। अब सेक्स के साथ बड़ा मजा है कि लोग उसे जन्म-जन्मान्तरों में भोगते हैं लेकिन सोए हुए भोगते हैं । इसलिए कभी भी अनुभव हाथ में नहीं आ पाता कुछ भी । सेक्स के क्षण में आदमी मूच्छित हो जाता है, होश ही खो देता है। बाहर आता है, जब होश में आता है तो वह क्षण निकल चुका होता है । फिर उस क्षण की मांग शुरू हो जाती है । तो ब्रह्मचर्य की साधना की प्रक्रिया का सूत्र यह है कि सेक्स के क्षण में जागे हुए कैसे रहें । और अगर आप दूसरे क्षणों में जागे हुए होने का अभ्यास कर रहे हैं तभी आप सेक्स के क्षण में भी जागे हुए हो सकते हैं । ठीक ऐसा ही मृत्यु का मामला है । हम बहुत बार मरे लेकिन हमें कोई पता नहीं कि हम पहले कभी मरे। उसका कारण है कि हर बार मरने के पहले हम मूच्छित हो गए हैं । मृत्यु का भय इतना ज्यादा है कि मृत्यु को हम जागे हुए नहीं भोग पाते । और एक दफा कोई मृत्यु में जागे हुए गुजर जाए, मृत्यु खत्म हो गई, क्योंकि वह जानता है कि यह तो अमृत हो गया, मरा तो कुछ भी नहीं, सिर्फ शरीर छूटा है और सब खत्म हो गया । लेकिन हम मरते हैं कई बार, हम बेहोश हो जाते हैं । और जब हम होश में आते हैं तब तक नया जन्म हो चुका है। वह जो बीच की अवधि है मृत्यु के गुजरने की, उसकी हमारे मन में कोई स्मृति नहीं बनती। स्मृति तो तब बनेगी जब हम जागे हुए हों। जैसे एक आदमी को बेहोशी में हम श्रीनगर घुमा ले जाएं। वह मूच्छित पड़ा है । उसको हमने क्लोरोफार्म सुंघाया हुआ है। श्रीनगर पूरा घुमायें, हवाई जहाज से दिल्ली बापस पहुँचा द और वह दिल्ली में फिर जगे और हम उससे कहें तुम श्रीनगर
२२