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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ ३६३ आग में हाथ डाला था। इस बात को मैं संस्कार कहता हूँ, फल नहीं कहता। फल तो जलन थी जो भोग लिया तुमने। प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने भोगने की खबर को लिए हुए है अपने साथ । ये खबरें भी हमें प्रभावित करती हैं । वे हमें न्यूनतम प्रतिरोध का मार्ग सुझाती है। जिस आदमी ने पिछले दस जन्मों में हत्या की है बार-बार उसकी बहुत सम्भावना इस जन्म में भी हत्या करने की है। कारण कि दस जन्मों से हत्या करने को उसकी जो वृत्ति है, जो भाव है, जो संस्कार है, वह निरन्तर गहरा होता चला गया है और जब उससे झगड़ा होता है तो पहली बात उसको यही सूझती है कि मार डालो। दूसरी बात नहीं सूझती उसको। यह निकटतम रास्ता है जिस पर सूखी रेखा बनी है। वृत्ति सिर्फ सूखी है, उसमें कोई प्राण नहीं है। अगर आप बदलना चाहें तो बदल सकते हैं। लेकिन अगर आप कहते हैं फल तो फल सूखा नहीं, फल हरा है । फल भोगना पड़ेगा, आप उसे बदल नहीं सकते। जैसे कोई आग में हाथ डालता है तो उसे उसी वक्त जलना पड़ेगा जब कि वह हाथ डालता है लेकिन मेरा कहना है कि यह आदमी आग में हाथ डालने की वृत्ति वाला है । दूसरे जन्म में भी इससे डर है कि कहीं वह आग में हाथ डाल दे। क्योंकि इसकी बार-बार आग में हाथ डालने की आदत भय पैदा करती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यह आग में हाथ डालने को बंधा है। यह चाहे तो न डाले। इसका मतलब यह होता है अन्ततः कि कर्मों की निर्जरा नहीं करनी है आपको । कर्मों की निर्जरा हर कर्म के साथ होती ही चली जाती है। पीछे सूखी रेखा रह जाती है। इसी सूखी रेखा से आपको ज्ञान हो जाना काफी है। इसलिए मोक्ष या निर्वाण तत्काल हो सकता है। पुरानी धारणा में वह तत्काल नहीं हो सकता क्योंकि आपने जितने कर्म किए हैं उनके फल आपको भोगने हो पड़ेंगे । जब आप सारे फल भोग लेंगे तभी आपको मुक्ति हो सकती है। और इन फलों को भोगने में फिर आपने कुछ कर्म कर लिए तो आप फिर बंध जाएंगे। और यह अन्तहीन शृंखला होगी। यानी मैं कह रहा है कि आप प्रतिबार कर्म करके फल भोग लेते हैं। निर्जरा वही हो जाती है, रह जाती है सिर्फ सूखी रेखा, कर्म नहीं, फल नहीं। अगर आप होश से मर जाते हैं तो वह अभी विदा हो जाती है। प्रश्न : सूखी रेखा रहने की जरूरत क्या थी ? उत्तर : उसकी जरूरत है।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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