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________________ २६८ महावीर : मेरी दृष्टि में प्रतिक्रमण बहुत अद्भुत बात है। वह चेतना को सब तरफ से असम्बन्धित कर देना है : पत्नी, अब पत्नी नहीं है; बेटा, अब बेटा नहीं है। मकान, अब मकान नहीं है। शरीर, अब शरीर नहीं है। प्रतिक्रमण है सब तरफ से लोटा लेना; सव तरफ से काटते चले आना। चेतना लौट आए अपने में तो फिर दूसरी बात शुरू होती है कि अब अपने में कैसे रम जाए क्योंकि न रम पाई तो फिर दूसरे में चली जाएगी। अगर बच्चे शाम घर भी लोट आए और अगर मां न रमा पाई तो बच्चे फिर लौट जाएंगे नदी के तट पर। वे फिर रेत के घर बनाएंगे। वे फिर खेलेंगे और फिर लड़ेंगे। लौट आना सिर्फ सूत्र है लेकिन लोट आते हैं तो रमें कैसे, ठहर कैसे जाएं उसकी चिन्ता करनी है। अगर चिन्ता नहीं की तो नोट भी नहीं पाएंगे। तो प्रतिक्रमण सिर्फ प्रक्रिया है, स्वभाव नहीं। इसलिए कोई प्रतिक्रमण में ही रुकना चाहे तो वह नासमझी में है। चेतना इतनी शोघ्रता से आती है और इतनी शीघ्रता से लौट जाती है कि पता ही नहीं चलता । एक दफा सोचती है कि कहां मकान ? क्या मेरा? लौटती है एक क्षण को। लेकिन यहां ठहरने को जगह नहीं पाती। पुनः वहीं लोट जाती है । दूसरा सूत्र है सामायिक । वह हम कल बात करेंगे कि चेतना कैसे स्वयं में ठहर जाए। वह ख्याल में आ गया तो सब ख्याल में आ गया। महावीर का जो केन्द्र है वह सामायिक है। सामायिक बड़ा अद्भुत शन्द. है । दुनिया में बहुत शब्द लोगों ने उपयोग किए है लेकिन इससे अद्भुत शब्द का उपयोग नहीं हो सका कहीं भी । समय का अर्थ है आत्मागामाविक गति मात्मा में होना। इसमें कोई यह नहीं पूछ सकता कि गामायिक किसकी । पूछोगे तो वह गलत हो जाएगा। यह सवाल ही नहीं है। ज्यान हो सकता है किसी का । सामायिक किसकी होगी ? किसी की भी नहीं होगी।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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