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________________ प्रश्न : महावीर ने न नियन्ता को स्वीकार किया है, न समर्पण को, न गुरु को,न शास्त्र को, न परम्परा को । तो क्या यह महावीर का घोर अहंकार नहीं था? क्या महावीर अहंवादी नहीं थे ? उत्तर : यह प्रश्न स्वाभाविक है और जो व्यक्ति नियन्ता को स्वीकार करता है, नियन्ता के प्रति समर्पण करता है, गुरु को स्वीकार करता है, गुरु के प्रति समर्पण करता है, शास्त्र परम्परा के प्रति झुकता है, वह साधारणतः हमें विनम्र विनीत, निरहंकारी मालूम पड़ेगा ? इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना जरूरी है। पहली बात यह है कि परमात्मा के प्रति झुकने वाला भी अहंकारी हो सकता है। और यह अहंकार की चरम घोषणा हो सकती है उसकी कि मैं परमात्मा से एक हो गया हूँ । 'अहं ब्रह्मास्मि' की घोषणा अहंकार को चरम घोषणा है। यानी मैं साधारण आदमी होने को राजी नहीं हूँ। मैं परमात्मा होने की घोषणा के बिना राजी ही नहीं हो सकता हूँ। नोत्से ने कहा है कि यदि ईश्वर है तो फिर एक ही उपाय है कि मैं ईश्वर हूँ। और यदि ईश्वर नहीं है तो बात चल सकती है। ईश्वर के प्रति समर्पण भी ईश्वर होने को अहम्मन्यता से पैदा हो सकता है। दूसरी बात यह कि समर्पण में अहंकार सदा मौजूद है, समर्पण करने वाला मौजूद है। समर्पण कृत्य हो अहंकार का है। एक आदमी कहता है कि मैंने परमात्मा के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया है। यहाँ हमें लगता है कि परमात्मा ऊपर हो गया है और यह नीचे। यह हमारी भूल है। समर्पण करने वाला भो नीचा नहीं हो सकता क्योंकि कल चाहे तो समर्पण वापस लौट सकता है । कल कहता है कि अब मैं समर्पण नहीं करता है। असल में कर्ता कैसे नीचे
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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