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________________ ४६० महावीर : मेरी दृष्टि में हो सकता है ? समर्पण में भी कर्ता सदा ऊपर है। वह कहता है मैंने समर्पण किया है परमात्मा के प्रति । और अगर मैं नहीं हूँ तो समर्पण कोई कैसे करेगा, किसके प्रति करेगा। इसे समझ लें तो महावीर की स्थिति समझ में आ सकती है। महावीर नितान्त ही निरहंकार हैं। यानी उतना भी अहंकार नहीं है कि 'मैं' समर्पण करूं। वह 'मैं' तो चाहिए समर्पण के लिए। वह समर्पण कराने का कर्तव्यभाव चाहिए। और जैसा मैंने कहा कि जो व्यक्ति समर्पण करता है, वह समर्पण मांगता है। यह मांग एक ही सिक्के का हिस्सा है दूसरा। लेकिन महावीर ने समर्पण किया भी नहीं, मांगा भी नहीं। मेरी दृष्टि में यह परम निरहंकारिता हो सकती है । यानी समर्पण करने योग्य भी तो निरहंकार चाहिए। आखिर मैं ही समर्पित होऊँगा, नियन्ता को मैं ही स्वीकृत करूँगा। महावीर के अस्वीकार में ऐसा नहीं है कि 'नियन्ता' नहीं है । अस्वीकार का कुल मतलब इतना ही है कि स्वीकार नहीं है। 'अस्वीकार' पर जोर नहीं है । महावीर सिद्ध करते नहीं, घूम रहे हैं कि परमात्मा नहीं है, ईश्चर नहीं है। उनके अस्वीकार का कुल मतलब इतना है कि वह सिद्ध करते नहीं, घूम रहे हैं कि ईश्वर है, नियन्ता है। अस्वीकार फलित है, अस्वीकार घोषणा नहीं । वह सिर्फ स्वीकृति की बात नहीं कर रहे, न समपंण की बात कर रहे हैं। न वे यह कह रहे हैं कि कोई गुरु नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है। वह यह भी नहीं कह रहे हैं कि वे गुरु के प्रति समर्पित नहीं हैं, शास्त्र के प्रति समर्पित नहीं है । यह फलित है जो हमें दिखाई पड़ता है कि वे समर्पित नहीं हैं । लेकिन समर्पण के लिए भी अहंकार चाहिए। अगर कोई व्यक्ति नितान्त अहंकार शून्य हो । जाए तो समर्पण कैसा ? कौन करेगा समर्पण ? समर्पण कृत्य है, कृत्य के लिए कर्ता चाहिए और अगर कर्ता नहीं है तो समर्पण जैसा कृत्य भी असम्भव है । फिर जब कोई कहता है कि मैंने समर्पण किया तो समर्पण से भी 'मैं' को ही भरता है। समर्पण भी उसके 'मैं' का ही पोषण है। वह समझता है कि 'मैं' कोई साधारण नहीं हूँ, मैं ईश्वर के प्रति समर्पित हूँ। एक सन्त के पास-तथाकथित सन्त कहना चाहिए-सम्राट अकबर ने खबर भेजी : बड़ा उत्सुक हूँ आपके दर्शन को, मिलने को, सुनने को । तथाकथित सन्त ने खबर भिजवाई पापिस कि हम तो सिर्फ राम के दरबार में झुकते हैं । हम बादमियों के दरबार में नहीं झुका करते। यह व्यक्ति क्या कह रहा है ? यह कह रहा है कि हम तो सिर्फ राम के सामने झुकते हैं, आदमियों के सामने
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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