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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२० ६०५ वह तथ्य ही नहीं रहा है। और मूठ से सत्य की यात्रा नहीं हो सकती । तस्य से सत्य तक. जाया जा सकता है लेकिन तथ्य को छिपा कर, बदल कर, तोड़ मरोड़ कर, हम कभी सत्य तक नहीं जा सकते। महावीर भी उसी असुरक्षा के बोष को संन्यास कहते हैं। लेकिन अब जिसको हम संन्यासी कहते हैं, वह हमारा बिल्कुल उल्टा आदमी है। संन्यासी हमारे गृहस्थ से ज्यादा सुरक्षित है । गृहस्थ का दिवाला निकल चुका है, संन्यासी का कोई दिवाला निकलने का कोई सवाल ही नहीं उठता। तो गृहस्थ के ऊपर हजारों चिन्ताएं और झंझटें हैं । संन्यासी के ऊपर वे चिन्ताएं और झंझटें नहीं हैं । संन्यासी बिल्कुल सुरक्षित है। अगर आज संन्यासी को हम देखें तो आज जो उल्टी बात दिखाई पड़ती है वह यह कि संन्यासी ज्यादा सुरक्षित है । उसे न बाजार के भाव से कोई चिन्ता है, न किसी दूसरी बात से कोई चिन्ता है। उसे न कोई दिक्कत है, न कोई कठिनाई है। खाने-पीने का सब इन्तजाम है, भक्त है, समाज हैं, मन्दिर हैं, आश्रम है । सब इन्तजाम है । संन्यासी इस समय सबसे ज्यादा सुरक्षित है जबकि संन्यासी का मतलब यह है कि जिसने सुरक्षा का मोह छोड़ दिया, जो इस बोष के प्रति जाग गया कि सभी असुरक्षित है और जब सुरक्षा के ख्याल में भी नहीं रहा, अब जो असुरक्षा में ही जीने लगा, कल की बात ही नहीं करता, भविष्य का विचार ही नहीं करता, योजना नहीं बनाता, बस क्षण-क्षण जिए चला जाता है, जो होना होगा, वह उसके लिए राजी है । मौत आए तो राजी है, जीवन हो तो राजी है, दुःख हो तो राजी है, सुख हो तो राजी है। ऐसी चित्त-दशा का नाम संन्यास है और ऐसा व्यक्ति अगृही है । अगर बहुत गहरे में खोजने जाएं तो सुरक्षा 'गृह' है, असुरक्षा 'अगृह' है ! मुरक्षा में जीने वाला, सुरक्षा में जीने की व्यवस्था करने वाला 'गृहस्थ' है। सुरक्षा में न जीने वाला, असुरक्षा की स्वीकृति में जीने वाला संन्यासी है, अगृही है। इस सम्बन्ध में एक प्रश्न किसी ने पूछा है कि महावीर ने संन्यासियों से यह क्यों कहा कि तुम गृहस्थों को विनय मत देना, उनको तुम नमस्कार मत करना, उनका तुम आदर मत करना। यह बात महावीर ने क्यों कही? इसे संन्यासी और गृहस्थ के बीच बना लेने से भूल हो जाती है। असल में अगर हम बहुत ध्यान से देखें तो जो असुरक्षित व्यक्ति है, वह ऐसे जो रहा है जैसे हवा-पानी जी रहा है। वह जो सुरक्षा के भ्रम में, सपने में और नींद में खोया है वह ऐसा ही है जैसे कोई कहे जागे हुए आदमी को कि तू सोए हुए मारमो ३९
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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