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________________ २९५ कपड़े बनवा देते हैं । विद्यासागर ने कहा कि मैं जैसा हूँ, ठीक हूँ । मित्र नहीं माने । उन्होंने खूब कीमती कपड़े बनवाए । कल सुबह जाना है विद्यासागर को गवर्नर के सामने और पुरस्कार लेना है । दरबार भरेगा। सांझ को वह घूमने निकले । समुद्र के तट पर से घूमकर लोट रहे हैं। सामने ही एक मुसलमान niraat छड़ी लिए चुपचाप शान से चला जा रहा है। एक आदमी भागा हुआ आया है और मौलवी से कहा : मीर साहब ! तेजी से चलिए, आपके मकान में आग लग गई है। मीर ने कहा ठीक है और फिर वह उसी चाल से चला । विद्यासागर हैरान हो गए क्योंकि सुना है उन्होंने, आदमी ने अभी आकर कहा है कि मकान में आग लग गई | मगर वह उसी चाल से चल रहा है । फिर उस आदमी ने घबड़ाकर कहा है : शायद आप समझे नहीं हैं । आपके मकान में आग लग गई है । तो कहा : मैंने समझ लिया है । फिर वह उसी चाल से चलने लगा है। तब विद्यासागर कदम बढ़ा कर आगे गए और कहा : " सुनिए ! हद हो गई है। आपके मकान में आग लग गई है और आप उसी चाल से चल रहे हैं ।" उस आदमी ने कहा कि मेरी चाल से मकान का क्या सम्बन्ध है ? और मकान के पीछे चाल बदल दें जिन्दगी भर को ? लग गई है ठीक है, लग गई है । अब मैं क्या करूंगा ? विद्यासागर ने घर आकर कहा कि मुझे वे कपड़े नहीं पहनने हैं । जिन्दगी भर की चाल छोड़ दूँ गवर्नर के लिए । एक आदमी जिसके मकान में आग लग गई है उसी चाल से जा रहा है, एक कदम नहीं बढ़ा रहा है। लेकिन ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है और अगर मिल जाए तो वह श्रावक हो सकता है । महावीर की सतत चेष्टा इसमें लगी कि कैसे मनुष्य श्रावक बने, कैसे सुनने बाला बने, कैसे सुन सके। और वह तभी सुन सकता है जब उसके चित्त की सारी विचार परिक्रमा ठहर जाए। फिर बोलने की जरूरत नहीं । वह सुन लेगा । ऐसी जो न बोली लेकिन सुनी गई वाणी है, उसका नाम दिव्य ध्वनि है । बोली नहीं गई है लेकिन सुनी गई है। दी नहीं गई है लेकिन पहुँच गई है। सिर्फ भीतर उठी है और सम्प्रेषित हो गई है । तो श्रावक बनाने की कला सोजने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ा। अब तो हम किसी को भी श्रावक कहते हैं । जो महावीर को मानता है वह श्रावक है। मगर महावीर के मरने के बाद श्रावक होना ही मुश्किल हो गया। असल में जो महावीर के सामने बैठा था वही श्रावक था । उसमें भी सभी श्रावक नहीं थे। बहुत से श्रोता थे । भोता काम से सुमता है, भावक प्राण से सुनता है। श्रोता को
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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