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________________ २९६ महावीर : मेरी दृष्टि शब्द बोले जाएं तो वह सुन ले, जरूरी नहीं है। वह शब्द बोले, जरूरी नहीं है। महावीर ने श्रावक की कला को विकसित किया। यह बड़ी से बड़ी कला है जगत् में। क्योंकि जीसस लोगों को नहीं समझा पाए। उन्होंने सिर्फ इसकी फिक्र की कि मैं ठीक ठीक कहूँ। इसकी फिक्र ही नहीं की कि वह ठीकठीक सुन सकता है, या नहीं सुन सकता। मुहम्मद इसकी फिक्र नहीं कर रहे है कि वह सुन सकेगा या नहीं। वह इसकी फिक्र कर रहे हैं कि जो मैं कह रहा हूँ यह ठीक होना चाहिए। वह बिल्कुल ठीक है। लेकिन कहना ही ठीक होने से कुछ नहीं होता; सुनने वाला भी मेक होना चाहिए । नहीं तो कहना व्यर्थ हो जाएगा। तुम कहोगे कुछ, सुना कुछ जाएगा, समझा कुछ जाएगा। इसलिए मैं महावोर को दूसरी बड़ी देनों में से धावक बनने की कला को मानता है। यह बड़े से बड़े योगदान में से एक है कि बादमी श्रावक कैसे बने। और तभी उन्होंने शब्द उठा दिया 'प्रतिक्रमण' । 'प्रतिक्रमण' शब्द भाषक बनाने की कला का एक हिस्सा है। हमें ख्याल भी नहीं कि 'प्रतिक्रमण' का अर्थ क्या होता है ? 'माक्रमण' का अर्थ हम समझते हैं क्या होता है। बाक्रमण से उल्टा मतलब होता है प्रतिक्रमण का । 'आक्रमण' का अर्थ होता है दूसरे पर हमला करना और प्रतिक्रमण का अर्थ होता है सब हमला लोटा लेना, वापस लौट जाना। हमारी चेतना आक्रामक है साधारणतः । प्रतिक्रमण का अर्थ है वापस लौट आना, सारी चेतना को समेट लेना वापस, जैसे सूर्य शाम को अपनी किरणों को जाल समेट लेता है ऐसे ही अपनी फैली. हुई चेतना को मित्र के पास से, शत्रु के पास से, पत्नी के पास से, बेटे के पास से, मकान से और धन से वापस बुला लेना है। जहां-जहां हमारी चेतना ने सूटियां गाड़ दी है और फैल गई है, उस सारे फैलाव को वापस बुला बेना है। प्रतिक्रमण का मतलब है वापस लौट आना। जाना है आक्रमण, लोट बाना है प्रतिक्रमण । जहाँ जहाँ चेतना गई है, वहां वहां से उसे वापस पुकार लेना है कि 'भा जाओ। बुख ने एक कहानी कही है। सांस को नदी के तट पर कुछ बच्चे रेत के घर बना रहे है। बहुत से बच्चे हैं। कोई घर बनाता है, कोई गड्ढा खोदता है, किसी बच्चे का किसी के घर में पैर लग जाता है। और जहाँ इतने बच्चे हो वहाँ पैर लग जाना भी सम्भव है। किसी का पर गिर जाता है, मारपीट होती है, गाली गलोज होती है, बच्चे चिल्लाते है : मेरा पर मिटा दिया।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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