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________________ महावीर : मेरी दृष्टि में मन्दिर और मस्जिद बने हुए हैं। तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र सब बचे हुए हैं बहुत, बहुत रूपों में लेकिन कुछ उनका मतलब नहीं है। क्योंकि उनसे क्या हो सकता था इसका कुछ पता नहीं। वह कैसे हो सकता था इसका भी कुछ पता नहीं । और तब-जैसे रेल के इंजन की पूजा कर कोई भागे भविष्य में जाकर, ऐसा हम मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं। हां, कुछ लोगों की स्मृति रह गई थी कि कुछ होता था, उनके पीछेवालों को भी वह कह गए हैं कि कुछ होता था, वह आज भी मन्दिर के घेरे में उनकी सुरक्षा के लिए खड़े हुए हैं। क्योंकि उनके पास कुछ भी बताने को नहीं है कि क्या होता था, क्या हो सकता था- वह करके कुछ भी नहीं बता सकते । चेतनाएं जैसे ही मुक्त होती हैं, मुक्ति के पहले सारी वासनाएं समाप्त हो जाती है । इसको थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए । मुक्ति होती ही उस चेतना की है जिसकी सारी वासनाएँ समाप्त हो गई हैं। लेकिन अगर सारी वासनाएं समाप्त हो जाएं तो अमुक्त स्थिति और मुक्त स्थिति के बीच सेतु क्या होगा? दोनों को जोड़ता कौन होगा ? वह आत्मा तो अपने को पहचान ही नहीं सकेगी क्योंकि उसने अपने को वासना में ही जाना था। और अगर सारी वासनाएँ एक क्षण में समाप्त हो जाएं और दूसरे क्षण कोई वासना न रह जाए तब वह आत्मा अपने को पहचान ही नहीं सकेगी कि मैं वही हूँ। इसलिए जब सारी वासनाएँ समाप्त हो जाती है तब सिर्फ सेतु की तरह एक वासना शेष रह जाती है जिसको मैं करुणा कह रहा हूँ, वही शेष रह जाती है। यही उसका पुराने जगत् से एक मात्र सेतु होता है। अमुक्त आत्मा और मुक्त मात्मा के बीच जो एक सेतु है, वह फरणा का है । लेकिन अन्ततः सेतु के पार हो जाता है सब और करुणा भी चली जाती है। तो तीर्थकर का होना करुणा की वासना से होता है। और एक जन्म से ज्यादा असम्भव है इस मोमन्टम में जाना, इस गति में जाना। इसलिए एक जन्म से ज्यादा नहीं हो सकता, और जैसा कि मैंने कहा है कि सभी ज्ञानियों को ऐसा हो जाता है ऐसा भी नहीं है। इसलिए महावीर की स्थिति में अनेकों पहुंचते हैं लेकिन सभी तीर्थकर नहीं हो जाते क्योंकि मुक्ति का आकर्षण इतना तीव्र है, मुक्ति का आनन्द इतना तीव्र है कि बहुत बलशाली लोग ही वापस लौट सकते हैं, एक जन्म के लिए ही। और यह बलशाली लोग एक जन्म में लौटकर इतना इन्तजाम कर जाते हैं, पूर्ण इन्तजाम कर जाते हैं, यानी उनके लौटने का प्रयोजन ही यह होता है असल में कि यह पूरा इंतजाम कर जाते हैं कि जब वह शरीर नहीं पहरण कर सकेंगे तब उनसे कैसे सम्बन्ध स्थापित किया जा सकेगा। अब इसकी बहुत गहरी व्यवस्था है।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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