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________________ १८२ महावीर : मेरी दृष्टि में सपना देख रहा था । क्योंकि न तलवार थी हाथ में, न वजीर ये सामने लेकिन तुम जब निकले वहाँ से अगर वह उस समय मर गिर जाता। अब अगर पूछते हो इस लेकिन गया है। लेकिन सम्राट् ने कहा : सपने में गर्दन काट रहा था। आता तब वह सातवें नरक में वक्त तो वह श्रेष्ठतम स्वर्ग पाने का हकदार मभी घड़ी भर भी नहीं हुआ हमें वहाँ से गुजरे । महावीर ने कहा कि जब उसने तलवार रख दी नीचे तो जैसी उसकी सदा आदत थी युद्धों के बाद अपने मुकुट को संभालने की, वह सिर पर हाथ ले गया । लेकिन सिर पर तो घुटी हुई खोपड़ी थी । वहाँ कोई मुकुट न था । तब एक सेकेन्ड में वह जाग गयासारी निद्रा से वापस आ गया । सब स्वप्न खंड-खंड हो गए। और उसने कहा कि 'मैं यह क्या कर रहा हूँ ? और मैं वह प्रसन्नचन्द्र नहीं हूँ अब जो तलवार उठा सके। उसके उठाने का तो मैं ख्याल छोड़ कर आया हूँ ।' और क्षण में वह लौट आया है । इस समय वह बिल्कुल वहीं खड़ा है । अभी वह स्वर्ग का हकदार है । हो € हम सोए हैं तो हम नरक में हो जाते हैं, हम जागे हैं तो स्वर्ग में हो जाते हैं । यह जागने की चेष्टा हमें सतत करनी पड़ेगी । जन्म-जन्म भी लग सकते हैं । एक क्षण में भी हो सकता है। कितनी तीव्र हमारी प्यास है, कितना तीव्र संकल्प है - इस पर निर्भर करेगा । तो महावीर ने अपने पिछले जन्मों में अगर कुछ भी साधा है तो साधा है विवेक, साधा है जागरण । और इस जागरण की जितनी गहराई बढ़ती चली जाती है उतने ही हम मुक्त होते चले जाते हैं क्योंकि बंधने का कोई कारण नहीं रह जाता । उतने ही हम पुण्य में जीने लगते हैं क्योंकि पाप का कोई कारण नहीं रह जाता। उतने ही हम अपने में जीने लगते हैं क्योंकि दूसरे में जीना भ्रामक हो जाता है। उतना ही व्यक्ति शान्त है, उतना ही अनन्दित है, जितना जागा हुआ है । जिस दिन पूर्ण जागरण की घटना घट जाती है; चेतना के कण-कण जागृत हो उठते हैं; कोने-कोने से निद्रा विलीन हो जाती है । उस दिन के बाद फिर लौटना नहीं । उस दिन के बाद फिर . परिपूर्ण जागना । ऐसी परिपूर्ण जागी हुई चेतना ही मुक्त चेतना है । सोई हुई चेतना, बंधी हुई चेतना है । इसलिए ध्यान से समझ लें कि पाप नहीं बांधता है कि हम पुष्य से उसको मिटा सकें । मूर्च्छा बांधती है। मूच्छित पाप भी 1 बांधता है, मूच्छित पुण्य भी बांधता है। मूच्छित असंयम भी बांधता है, मूच्छित संयम भी बांधता है । और इसलिए यह बहुत समझ लेने जैसा है कि अगर कोई असंगम से संयम बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा; पाप को पुण्य बनाने
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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