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अब तो यह नहीं कह कती हैं। सामने हो भोजन कर लिया है। तो मुनि ने कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है। तुम जाओ और नदी से यही कहो कि अगर मुनि जीवन भर के उपासे हैं तो नदी राह दे दे। उन स्त्रिों को बड़ी मुश्किल हो गई क्योंकि भोजन थोड़ा भी नहीं, बहुत ज्यादा, पूरा हो मुनि कर गए हैं, कुछ छोड़ा भी नहीं है पीछे और फिर भी कहते हैं उपासे हैं । बड़ी शंका में, बड़े सन्देह में उन्होंने नदी से जाकर कहा। खुद पर हंसी आती है कि यह कैसे सम्भव है। लेकिन नदी ने फिर मार्ग दे दिया। तो वे लोटकर अपने पति से पूछतो हैं । जाते वक्त जो घटा वह बहुत छोटा चमत्कार था। लौटते वक्त जो घटा है, उस चमत्कार का मुकाबला ही नहीं। जाते वक्त भी चमत्कार हुआ था कि नदी ने मार्ग दिया। लेकिन वह बहुत छोटा हो गया. अब । वह मुनि जो कि सब खा गए और फिर उपवासे हैं ! उनके पति ने कहा जो उपवास स्थायी ही है उसी के करने वाले को हम मुनि कहते हैं। भोजन से उपवास का कोई सम्बन्ध नहीं है। असल में भोजन करने की तृष्णा एक बात है और भोजन करने की जरूरत बिल्कुल दूसरी बात है। भोजन की तृष्णा भोजन न करो तो भी हो सकती है। भोजन करना और उसकी जरूरत बिल्कुल दूसरी बात है । भोजन करो तो भी हो सकता है तृष्णा न हो । जब तृगा छूट जाती है और सिर्फ जरूरत रह जाती है शरीर की तो आदमी उपवासी है। जैसा मैंने सुबह कहा वह भीतर वास किए चला जाता है । शरीर को जरूरत है--सुन लेता है, कर देता है। इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं है। खुद कभी भी उसने भोजन नहीं किया है। तो अबर यह हो सकता है तो फिर महावीर पिता नहीं होंगे, लड़की हो तो भी; पति नहीं होंगे अबर पत्नी हो तो भी । तथ्य अक्सर सत्य को रोक लेते हैं और हम सब तथ्यों को ही देख पाते हैं और हमारा ख्याल होता है कि तथ्य बड़े कोमतो हैं। नोर तथ्य के बहुत पहलू हो सकते हैं।
मैंने सुना है एक अदालत में एक मुकदमा चला। एक आदमी ने एक हत्या कर दी है। आँखों देखे गवाह ने कहा कि खुले आकास के नीचे यह हत्या की गई है। जब हत्या की गई, मैं मौजूद था। और आकाश में तारे थे। दूसरे आदमी ने कहा कि यह हत्या मकान के भीतर की गई है, मैं मौजूद था। चारों तरफ दीवार से बन्द परकोटा था। द्वार पर मैं खड़ा था। चारों तरफ दोवार थी, मकान था जिसके भीतर हत्या की गई है। उस न्यायाधीश ने कहा कि मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया है तुमने क्योंकि एक कहता है