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महाबीर | मेरी दृष्टि में
साधना है लेकिन उन्होंने देखा कि वह साधन व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है और सोचा कि किसी को अपने साधन की तरह उपयोग करने का सवाल नहीं है; वह तो उसके भीतर संदेश भर पहुँचाने का सवाल है । इसलिए उसका प्रयोग तो उन्होंने बहुत किया, लेकिन किसी को अपने साधन की तरह उपयोग कभी नहीं किया। दूसरा रास्ता है कि दूसरा व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो जाए तो फिर मौन में ही बात हो सकती है; फिर कोई जरूरत नहीं है उससे शब्दों का उपयोग करने की, क्योंकि शब्द सबसे असमर्थ चीज हैं। मौन में जो कहा जाए वह पहुँच जाता है; जो कहा ही नहीं गया जो समझा जा सकता है वह भी पहुँच जाता है ।
इसलिए महावीर का जो भक्त है उसको कहते हैं श्रावक यानी ठीक से सुनने वाला । सुनते हम सभी हैं । हम सभी धावक हैं । लेकिन हम सभी श्रावक नहीं है। श्रावक वह है जो ध्यान की स्थिति में बैठकर सुन सके उस स्थिति में जहाँ उसके मन में कोई विचार नहीं है, शब्द नहीं है, कुछ भी नहीं है, मौन में बैठ कर जो सुन सके वह श्रावक है । यह शब्द का उपयोग आकस्मिक नहीं है । भक्त को श्रोता कहने से काम नहीं चलता क्योंकि श्रोता का मतलब है सिर्फ सुनना । श्रावक का मतलब है सम्यक् श्रवण । हम सब सुनते हैं लेकिन हम श्रावक नहीं हैं | श्रावक हम तब होते हैं जब हम सिर्फ सुनते हैं और हमारे भीतर कुछ भी नहीं होता ।
ले जाए । तो
गुरजिएफ की मैं अभी बात कर रहा था। पहले कि वह संदेश दे मास्पेंस्की को उसे श्रावक बनाना जरूरी है। वह सुन ले और संदेश को गुरजिएफ आस्पेंस्की को जंगल में ले जाकर तीन महीने रहा। उस मकान में तीस व्यक्तियों को वह लाया जिनको वह श्रावक बना रहा था। तीन महीने उन तीस लोगों को रखा एक ही बंगले में जो सब तरफ बंद कर दिया गया, जिसमें बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है और जिसमें गुरजिएफ कभी बाहर से खोल कर भीतर आता है और जिसे बंद कर बाहर जाता है। मकान सब तरफ से बंद है। भोजन का इन्तजाम है । सारी व्यवस्था है । शर्त यह है कि तीन महीने न तो कोई कुछ पढ़ेगा, न कोई कुछ लिखेगा, न कोई किसी से बात करेगा । तोस आदमी एक मकान के भीतर हैं । गुरजिएफ ने कहा कि तुम ऐसे समझना कि एक-एक ही वहाँ हो, तीस नहीं । उन्तीस यहाँ हैं हो नहीं तुम्हारे अलावा। आंख के इशारे से भी मत बताना कि दूसरा है। सुबह तुम बैठोगे तो कोई जा रहा है तो जाने देना । तुम मत सोचना कि कोई जा रहा है ।
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