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________________ २६५ अगर कोई नमस्कार भी करे तो नमस्कार मत करना क्योंकि कोई है ही नहीं जिसको तुम नमस्कार करो। मांस से भी मत पहचानना कि तुम हो । मुस्कराना भी मत, भाव भी मत प्रकट करना। और जो आदमी इस तरह के भाव प्रकट करे उसे मैं बाहर निकाल दूंगा। पन्द्रह दिन में 'छंटाई करूँगा। पन्द्रह दिन में सत्ताईस आदमी उसने बाहर कर दिए। तीन आदमी रह गए। उनमें एक रूप का गणितज्ञ आस्स्को भी था। आस्स्को ने लिखा है कि पन्द्रह दिन बहुत कठिनाई के थे, दूसरे को न मानना बड़ा कठिन था। कभी सोचा भी नहीं था कि कठिनाई हो सकती है। लेकिन संघर्ष से, संकल्प से पन्द्रह दिन में वह सीमा पार हो गई। दूसरे का ख्याल बंद हो गया। आस्स्की ने लिखा है कि जिस दिन दूसरे का ख्याल बंद हो गया उस दिन से पहली बार अपना ख्याल शुरू हुआ। अब हम सब अपना ख्याल करना चाहते हैं। मगर दूसरे का ख्याल मिटता नहीं है । अपना ख्याल कमी हो नहीं सकता। क्योंकि जगह खाली नहीं। कहते हैं-आत्मस्मरण । मगर आत्म-स्मरण कैसे हो ? आत्मस्मरण चौबीस घंटे चल रहा है और उसी के बीच दूसरे का स्मरण भी हो रहा है और फिर हम आत्मस्मरण करना चाहते हैं। आस्पेंस्की ने लिखा है कि तब तक मैं समझा ही नहीं था कि आत्म-स्मरण का मतलब क्या होता है। और बहुत बार कोशिश की थी अपने को याद करने को । कुछ नहीं होता था। तब सपाल में आया पन्द्रह दिन के बाद कि वह जो दूसरा भीतर बैठा था बिदा हो गया है । जब भीतर खाली रह गया तो सिवाय अपने स्मरण के कोई मौका ही नहीं रहा । तब पहली बार में अपने प्रति जागा। सोलहवें दिन सुबह उठा जैसा कि मैं जिन्दगी में कभी नहीं उठा था। पहली बार मुझे बोध हुआ कि अब तक मैं दूसरे के बोष में ही उठता था। सुबह उठने से दूसरे का बोष शुरू हो जाता था। अब अपना बोष चौबीस घंटे घेरे रहने लगा क्योंकि अब कोई उपाय न रहा। दूसरे को भरने की जगह न रही। एक महीना पूरा होते-होते, उसने लिखा है कि मैं हैरानी में पड़ गया। दिन बीत जाते हैं, मुझे पता ही नहीं चलता कि जगत् भी है, कोई व्यावहारिक संसार भी है, बाजार भो है, लोग भी हैं। दिन बीत जाते हैं, और पता नहीं चलता । सपने विलीन हो गए । जिस दिन दूसरा मूला उसी दिन सपने विलीन हो गए। क्योंकि सब सपने बहुत गहरे में दूसरे से सम्बन्धित है । जिस दिन सपने विलीन हुए उस दिन मुझे रात में भी अपना स्मरण रहने लगा। ऐसा नहीं है कि मैं रात में सोया हुआ है। रात में भी सब सोये है और मैं जागा हुमाई, ऐसा होने लगा।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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