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महावीर मेरी दृष्टि 'असार है, कल मौत वा पाएगी, घेत जाबो बोर अगर हम सीख न सकते हों तो बावाज कान में सुनाई पड़ेगी और समाप्त हो जाएगी। बोर बगर कोई सीख सकता है तो एक वृन से गिरते हुए सूखे पत्ते को देखकर भी सीख सकता है कि जिन्दगी असार है और अभी जो हरा था, वह अभी सूख गया; कल जो जन्मा था, आज मर गया है। और एक सूखा पत्ता गिरता हुवा भी एक व्यकि को जीवन की सारी व्यर्थता का बोष करा सकता है। लेकिन सीखने की क्षमता न हो तो यह बोध कोई भी नहीं करा सकता। महावीर में सीखने की अद्भुत क्षमता है, इसलिए उन्होंने कोई गुरु नहीं बनाया। गुरु खोजा भी नहीं। बस सीखने निकल पड़े, खोजने निकल पड़े, बीच में किसी व्यक्ति को लेना नहीं चाहा क्योंकि उधार जान लेने की उनकी कोई माकांक्षा नहीं। उधार भी कभी ज्ञान हो सकता है ? सब चीजें उधार हो सकती है, ज्ञान उधार नहीं हो सकता। जान उसका ही होता है, जो पाता है । वह दूसरे को देते ही व्यर्थ हो जाता है ।
गुरुओं की कमी न पी, सब तरफ गुरु मौजूद थे। शास्त्रों की कमी न थी, शास्त्र मौजूद थे। सिद्धान्तों की कमी न थी, सिद्धान्त मौजूद थे। लेकिन महावीर ने सबकी ओर पीठ कर दी क्योंकि शास्त्र की ओर मुंह करना या सिद्धान्त की ओर या गुरु को बोर-बासे और उधार के लिए उत्सुक होना है। वह निपट अपनी खोज पर चले गए । स्वयं ही पा लेना है। और जो स्वयं न मिले वह दूसरे से मांग कर मिल भी कैसे सकता है ? मिलने का मार्ग भी क्या है ? रास्ता भी क्या है? दूसरे से ज्यादा से ज्यादा शब्द मिल सकते है, सिद्धांत मिल सकते है, लेकिन सत्य नहीं मिल सकता। इसलिए महावीर ने किसी गुरु के प्रति समर्पण नहीं किया। यह भी समझ लेने जैसी बात है कि समर्पण ही करना हो तो खुद्र के प्रति, सीमित के प्रति क्या ? समस्त के प्रति क्यों नहीं ? सच तो यह है कि एक के प्रति समर्पण बसल में समर्पण नहीं है। एक के प्रति समर्पण में शर्त है। जब मैं कहता हूँ कि फलां व्यक्ति के प्रति में समर्पण करूंगा, और फलों के प्रति नहीं तो मैं शर्त रख रहा है क्योंकि मैं मानता हूँ कि एक ठीक है, दूसरा गलत है । यह पा लिया है, दूसरा नहीं पाया है। इससे मिलेगा, दूसरे से नहीं मिलेगा। यह दे सकता है, दूसरा नहीं दे सकता । तब समर्पण कैसा हुवा ? यह तो सौदा हुआ। जिससे हमें मिलेगा, जिससे हम पा सकते है, उसकी बाकांचा को ध्यान में रखकर अगर समर्पण किया गया तो समर्पण कैसा हुआ? यह सौदा हुवा, लेन-देन हुवा । समर्पन का पर्व यह है कि बिना शर्त, बिना माकांक्षा के स्वयं को छोड़ना। तब कोई किसी व्यक्ति के प्रति