SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ महावीर : मेरी दृष्टि में नहीं।' लेकिन मैंने मना नहीं किया। अभी तक कोई समझाने वाला नहीं आया। क्या करें, कोई उपाय नहीं है। इसलिए उसकी चिन्ता नहीं लेनी चाहिए। ___ कर्म के सम्बन्ध में आप पूछते हैं कि यह जो विकास हो रहा है जिसमें ये जो पशु-पक्षी है मनुष्य योनि तक आ गए हैं क्या अपने आप चल रहा है या उनकी सचेत चेष्टा भी इसमें सहयोगी है। मेरा कहना है कि विकास दो तलों पर चल रहा है। डार्विन की खोज बड़ी गहरी है लेकिन एकदक अधूरी है। डाविन ने शरीर के विकास पर सारा सिद्धान्त निर्धारित किया है । ऐसा मालूम पड़ता है कि कभी न कभी कुछ लाख वर्ष पहले, बन्दर के ही शरीर से मनुष्य के शरीर की गति हुई होगी। बन्दर के शरीर की व्यवस्था, उसके मस्तिष्क, उसको हड्डी, मांस-पेशियां सब खबर देती है कि उससे ही मनुष्य का शरीर माया होगा और खोज करते-करते कहा जा सकता है कि किसी न किसी रूप में मछली से जीवन-यात्रा शुरू हुई होगी और मछली भी किसी न किसी प्रकार के पौधे से ही आई होगी। इस सब के लिए लम्बा वैज्ञानिक अन्वेषण हुआ है। और यह बात तय हो गई है कि इस तरह का क्रमिक विकास शरीर में हो रहा है । लेकिन चूंकि विज्ञान आत्मा की फिक्र ही नहीं करता, इसलिए बात अधूरी है और आधे सत्य असत्य से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं क्योंकि आधे सत्यों में पूर्ण सत्य होने का भ्रम पैदा होता है। यह विकास का एक आधा हिस्सा है। दूसरा हिस्मा वह है जिसके लिए महावीर जैसे लोगों की खोज कीमती है। वह कहते हैं कि चेतना भी विकसित हो रही है। अगर शरीर ही अकेला है बस तब सब विकास परिस्थितिगत है और प्रकृति के नियम के अनुकूल है। क्योंकि अगर शरीर अकेला हो तो इच्छा का सवाल ही नहीं उठता। लेकिन अगर चेतना भी है तो विकास सहज हालत में नहीं हो सकता क्योंकि चेतना का मतलब ही है कि जो यान्त्रिक नहीं है। एक पंखा चल रहा है। पंखे का चलना बिल्कुल यांत्रिक है। पंखे की कोई इच्छा काम नहीं कर रही । लेकिन अगर पंखे की आत्मा हो तो पंखा कभी भी कह सकता है कि आज बहुत सर्दी है, नहीं चलते। या आज बहुत थक गए हैं, आज चलने का मन नहीं है। कभी तेजी से भी चल सकता है अगर प्रेमी पास आ जाए। दुश्मन आ जाए तो बन्द भी हो सकता है। मगर पंखे के पास कोई चेतना नहीं है। किन्तु जहाँ चेतना है वहाँ विकास स्वचालित नहीं हो सकता। उसमें चेतना सक्रिय रूप से भाग लेंगी। लेकिन जो हमें विकास दिख रहा है वह मालूम पड़ रहा है और सचेष्ट विकास की यात्रा बहुत कम नजर आती है तो
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy