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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ ५०५ लाओ, फिर वही सवाल उठे। फिर परमात्मा का प्रारम्भ कब हुआ, यह सकाल उठे। और फिर परमात्मा की मृत्यु कब होगी, यह सवाल उठे। हमें सवालों में जाने का कोई अर्थ नहीं है। __ तो महावीर उस परिकल्पना को एकदम इन्कार कर देते हैं। और मेरी अपनी समझ है कि जो लोग अस्तित्व की गहराइयों में गए हैं, वह स्रष्टा की धारणा को इन्कार ही कर देंगे। उनकी परमात्मा की धारणा, स्रष्टा की धारणा नहीं होगी। उनकी परमात्मा की धारणा जीवन के विकास की चरम बिन्दु की धारणा होगी। यानी सामान्यतः जिसको हम आस्तिक कहते हैं उसका परमात्मा पहले है । महावीर की जो आस्तिकता है उसमें परमात्मा चरम विकास है । और इसलिए रोज होता रहेगा। एक लहर गिर जाएगी और सागर हो जाएगी। लेकिन दूसरी लहर उठती रहेगी तो इसलिए कोई कभी अन्त नहीं होगा । लहरें उठतो रहेंगी, गिरती रहेंगी। सागर सदा होगा। इसलिए आस्तिक वह है जो लहरों पर ध्यान न दे, उस सागर पर ध्यान दे जो सदा है। आस्तिक वह है जो बदलाहट पर ध्यान न दे, उस पर ध्यान दे जो सदा से है। एक आदमी मर रहा है। उससे हम पूछे कि सच में वह तूने किया हो था या कोई सपना देखा था तो मरते आदमी को तय करना बहुत मुश्किल है कि जिन्दगी में जो लाखों कमाए थे, वे कमाए ही थे, या कि कोई सपना था । बटेंड रसल ने एक मजाक की है कि मरते वक्त मैं यह नहीं तय कर पाऊंगा कि जो हुआ वह सच में हुआ या कि मैंने एक सपना देखा । और कैसे तय करूंगा, दोनों में फर्क क्या करूंगा कि वह सच में हुआ था। आप ही पीछे लौटकर देखिए कि जो बचपन गुजर गया वह आपका एक सपना था या कि सचमुच था । आज तो आपके पास सिवाय एक स्मृति के और कुछ नहीं रह गया । मजे की बात यह है कि जिसे हम जीवन कहते हैं उसकी स्मृति भी वैसे ही बनती है जैसे कि ' सपने की बनती है । इसीलिए छोटे बच्चे तय भी नहीं कर पाते कि यह सपना है । छोटा बच्चा अगर रात में सपना देख लेता है कि उसकी गुड्डी किसी ने तोड़ दो है तो वह सुबह रोता हुआ उठता है, पूछता है मेरी गुड्डी तोड़ डाली गई है। उसे अभी साफ नहीं है। उसने जो सपना देखा उसमें और जागकर जो गुड्डी देखी उसमें फर्क है । लेकिन उसे अभी फर्क नहीं मालूम पड़ता। इसलिए हो सकता है कि वह सपने में डरा हो और जागकर रोता रहे । और समझाना मुश्किल हो जाए क्योंकि हमें पता ही नहीं उसके कारण का कि वह डरा किस
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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