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________________ ७३४ महावीर । मेरीष्टि में बह गई, सूरज न निकला, सब गड़बड़ हो गया। लेकिन ध्यान रहे कि अगर प्रतिकूल परिस्थिति में इतना कडुवा फल माया तो अनुकूल परिस्थितियों में कितना कडुवा फल पाता है इसका कोई हिसाब नहीं। हम जो इच्छाएं करते हैं अगर वे पूरी की पूरी हो जाएं तो हम इतने बड़े दुःख में गिरेंगे जितने दुःख में हम कभी भी नहीं गिरे । इसे थोड़ा समझना चाहिए। ' आमतौर से हम सोचते हैं कि हम इसलिए दुःखी हैं कि हमारी इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं। हमारा तर्क यह है, हमारे दुःख का कारण यह है कि हम इच्छा करते हैं, वह पूरी नहीं होती। जबकि सच्चाई यह है, हमारे दु.ख का कारण यह है कि हम जो इच्छा करते हैं, वह दुःख का बीज है और वह बिना पूरा हुए इतना दुःख दे जाती है तो अगर पूरी हो जाए तो कितना दुःख दे जाएगी, बहुत मुश्किल है कहना । समझ लें कि एक व्यक्ति की अभी इच्छा पूरी नहीं हुई, वह बहुत दुःखी रहता है। उससे पूछो तो वह कहेगा कि मैं इतना दुःखी हूँ जिसका कोई हिसाब नहीं क्योंकि जिसे पाना है वह नहीं मिल रहा है। हजार बाधाएं आ रही है। एक प्रेमी है जो अपनी प्रेयसी को पाने की खोज में लगा है। वह नहीं मिली है। एक प्रेयसी है जो अपने प्रेमी को पाने की खोज में लगी है, वह नहीं मिला है। लेकिन प्रेयसी मिल जाए तो एक इच्छा पूरी हुई मिलने की और मिलते ही जो आशाएं है वे सब तत्काल क्षीण हो जाएंगी क्योंकि पाने का, जीतने का, सफल होने का जो भी सुख है वह सब चला गया। वह जो इतने दिन तक आशा थी कि पाने पर यह होगा, वह होगा, वह आशा चली गई क्योंकि वह सब आशा पाने से सम्बन्धित न थी। वह सब आशा हमारे ही सपने और काव्य थे, हमारी ही कल्पनाएं थीं जो हमने पारोपित की हुई थीं। और एक प्रेयसी दूर से जैसी लगती है वैसी पास से नहीं। दूर के ढोल सुहावने होते है । दूर की चीजें सुहावनी होती है। असल में दूरी एक सुहावना. पन पैदा करती है। जितनी दूरी उतनी सुखद क्योंकि दूर से हम चीजों को पूरा नहीं देख पाते । जो नहीं देख पाते हैं वह हम अपना सपना हो उसकी जगह रख देते हैं। दूर से एक व्यक्ति को हम देखते हैं । दिखती है एक रूप-रेखा लेकिन बहुत कुछ हम अपने सपने से उसमें जोड़ देते हैं। इसमें दूसरे व्यक्ति का कहीं कसूर नहीं है। लेकिन जो हमने जोड़ा था वह विषलकर बहने लगे निकट माने.पर, और जो हमने सपना जोड़ दिया था, काव्य जोड़ दिया था वह मिटने लगे, जैसा व्यक्ति वा पैसा प्रकट होजाए ऐसा हमने कमी नहीं मा।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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