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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ ६५५ सिर्फ हंसेगा और कहेगा कि तुम भी आओ और छोड़कर देखो क्योंकि जो मैंने पाया है वह बहुत ज्यादा है और उसमें वह पुराना मौजूद ही है। . जो तुम कहते हो छोड़ दिया, वह कहीं छोड़ा नहीं। घर छूटा नहीं है महावीर का, सिर्फ बड़ा हो गया है। इतना बड़ा हो गया है कि हमें दिखाई भी नहीं पड़ता क्योंकि हमें छोटे घर ही दिखाई पड़ सकते हैं। अगर घर बहुत बड़ा हो जाए तो फिर हमें दिखाई नहीं पड़ता। त्याग से हटा देनी चाहिए बात और विराट् भोग पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए। और मेरी अपनी समझ है कि जो त्याग से हमने बांध लिया है इन सब महापुरुषों को इसलिए हम इनके निकट नहीं पहुंच पाए क्योंकि त्याग बहुत गहरे में किसी व्यक्ति को भी अपील नहीं कर सकता है। बहुत गहरे में, त्याग की बात ही निषेध की बात है। यह छोड़ो वह छोड़ो, छोड़ने की भाषा ही मरने की भाषा है। छोड़ना आत्मघाती है। इसलिए अगर धर्म इस बात पर जोर देता हो कि छोड़ो, छोड़ो, तो बहुत थोड़े से लोग हैं जो उसमें सुक हो सकते हैं। और अक्सर ऐसा होगा कि रुग्ण लोग उत्सुक हो जाएंगे और स्वस्थ लोग उत्सुक नहीं रह जाएंगे। स्वस्थ भोगना चाहता है, रुग्ण छोड़ना चाहता है क्योंकि वह भोग नहीं सकता। बीमार, आत्मघाती चित्त के लोग इकट्ठे हो जाएंगे धर्म के नाम पर । स्वस्थ, जीवन्त, जीवन जानने वाले अलग चले जाएंगे, कहेंगे धर्म हमारा नहीं है। इवलिए तो लोग कहते हैं । युवावस्था में धर्म की क्या जरूरत ? वह तो वृद्धावस्था के लिए है। जबकि चीजें अपने से छूटने लगती है तो उन्हें छोड़ ही दो। फिर अब क्या दिक्कत है ? छोड़ ही दो, छूट ही रहा है, छीना ही जा रहा है, लेकिन जब जीवन भोग रहा है, पा रहा है, उपलब्ध कर रहा है तब छोड़ने की भाषा समझ में नहीं आती। इसलिए मन्दिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में बूढ़े लोग दिखाई पड़ते हैं, जवान आदमी. दिखाई नहीं पड़ते। वह जो छोड़ने पर जोर था उसने दिक्कत डाल दी है। मैं इस जोर को एकदम बदलना चाहता है। मैं कहता हूँ : भोगो और ज्यादा भोगो ? परमात्मा को भोगो और उसका भोग बहुत अनन्त है, अपर मत जाना । क्षुद्र को छोड़ना तो इसलिए कि विराट को भोगना है। जितना हम विराट् होते चले पाएंगे, उतना हमारा अस्तित्व मिटता चला जाएगा। लेकिन असल में, 'अस्तित्व
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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