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________________ ७४० महावीर : मेरी दृष्टि में आदमी हो उस तरह का मादमी जैसी स्त्री को खोज सकता था, तुम खोज लाए। हो सकता है कि बहुत पुराने दिनों में इसी अनुभव के आधार पर एक ही विवाह की व्यवस्था कर ली गई हो। क्योंकि एक बादमी एक ही तरह की स्थियां खोज सकता है साधारणतः यानी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर बार नाप बदल जाएगा, शकल बदल जायगी लेकिन स्त्री वह वैसी ही खोज लाएगा जैसा उसका दिमाग है । उस दिमाग से वह वैसी ही स्त्री फिर बोज लाएगा। फिर बार-बार फिजूल की परेशानी में क्यों पड़ेगा। कुछ समझदार लोगों ने कहा है कि एक ही विवाह काफी है, एक ही दफा खोज लो वही बहुत है। और यह भी हो सकता है कि उसी अनुभव के आधार पर व्यक्ति खोजेगा जो उसका पहला अनुभव होगा, इसलिए उनमें भूल हो जाना निश्चित है । इसलिए मां बाप जिन्हें ये अनुभव हो चुके हैं उसके लिए खोजते हैं । जो इस अनुभव से गुजर चुके हैं और बेवकूफी भोग चुके हैं और ना समझी झेल चुके हैं, वे शायद ज्यावा ठोक से खोज सकें। और आदमी की जो पहली खोज होगी वह उसमें भूल करेगा। इसलिए हो सकता है कि वह मां-बाप पर छोड़ दिया गया हो। इषर निरन्तर अनुभव के बाद कुछ मनोवैज्ञानिक अमेरिका में यह कहने लगे हैं कि बाल-विवाह शुरू कर दो। यह बात भी दुखद है कि मां-बाप बच्चे का विवाह तय करें। लेकिन जैसी स्थिति है उससे यही सुखद मालूम पड़ता है। इससे भिन्न होना अभी कठिन है और यह हो सकता है कि जब हम उसके बीजों को समझ लें तो हम जो खोज करें वह और तरह की हो। हम जिस नाव पर सवार हों वह और तरह की हो जीवन के सब मामलों में । सुख दुःख को अलग मत समझना । सुख दुःख को एक समझना। हो, जरा देरी लगती है दोनों को मिलने में । फासला है। फासले की वजह से वो समझ लिए जाते है । मुष्टि छोटी है और फासला बड़ा है। हमको कमरे की दोनों दीवारें दिखाई पड़ती हैं। और हम जानते है कि दोनों दीवारें इसी कमरे की है और हम ऐसी भूल न करेंगे कि यह दीवार बचा लें और यह मिटा दें। क्योंकि ऐसी भूल हम करेंगे तो दीवार भी गिरेगी और मकान भी गिरेगा। मगर पोवार गिरानी हों तो दोनों को गिरा दो, न गिरानी हों तो दोनों को बबने दो क्योंकि दोनों दीवारें दिखाई पड़ती है। लेकिन कमरा इतना बड़ा हो सकता है कि जब भी हमें दिखाई पड़ती हो एक ही दीवार दिखाई पड़ती हो।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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