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________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ६ १८७ मतलब है कि वासना और निर्वासना के बीच जो सेतु है - चाहे हम करणा को वासना का अन्तिम रूप कहें, चाहे करुणा को निर्वासन का प्रथम रूप कहें, यह बीच की कड़ी है, जहाँ वासना समाप्त होती है और निर्वासना शुरू होती है । करुणा सूक्ष्म रूप नहीं है वासना का । अगर सूक्ष्म रूप हो तो करुणा में भी द्वन्द्व रहता ही है । इसलिए वासना में दुःख है क्योंकि जहाँ द्वन्द्व है, वहाँ दुःख है । वासना चाहे कितनी ही सुखद हो, उसके पीछे उसका दुखद रूप खड़ा ही रहेगा । सब वासनाएं एक सीमा पर अपने से विपरीत में बदल जाती हैं । प्रत्येक वासना का विरोधी तत्क्षण मोजूद ही रहता है । वह कभी अलग होता ही नहीं । जब हम प्रेम की बात करते हैं, तभी घृणा खड़ी हो जाती है । जब हम क्षमा की बात करते हैं, तभी क्रोध खड़ा हो जाता है । जब हम दया की बात करते हैं, तभी कठोरता आ जाती है। यानी अगर ठीक से समझें तो दया कठोरता का ही अत्यन्त कम कठोर रूप है । यानी जो फर्क वह वह इस तरह का जैसे ठंडे और गरम में गरम ठंडे में फर्क क्या है ? गरम-ठंडी दो चीजें नहीं है । ये एक ही तापमान के दो तल हैं। हम ऐसा समझें तो ठीक समझ मैं आ जाएगा । एक बर्तन में गरम पानो रखा है । दूसरे बर्तन में बिल्कुल ठंडा पानी रखा है । आप दोनों में अपने दोनों हाथ डाल दें । एक आइसकोल्ड ठंडे पानी में, एक उबलते हुए गरम पानी में। फिर दोनों हाथों को निकालकर एक ही बाल्टी में डाल दें, जिसमें साधारण पानी रखा है । और तब आप हैरान रह जाएँगे । आपका एक हाथ कहेगा कि पानी बहुत ठंडा है । और आपका दूसरा हाथ कहेगा कि पानी बहुत गरम है। और पानी बिल्कुल एक आपके हाथ की ठंडक और गर्मी पर निर्भर करेगा कि आप इस कहते हैं । और आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि इस पानी को क्या कहें ? क्योंकि एक हाथ खबर दे रहा है कि पानी ठंडा है, दूसरा हाथ खबर दे रहा है कि पानी गरम है | बाल्टी में है । पानी को क्या कठोरता और दया इसी तरह की चीजें हैं । इनमें जो भेद है, वह भेद अनुपात का । तब यह भी हो सकता है कि एक बहुत कठोर आदमी को जो चीज बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े, एक बहुत दयापूर्ण आदमी को वह चीज बहुत कठोर मालूम पड़े । वह तो सापेक्ष होगा । तैमूरलंग जैसे आदमी को जो बात बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े वह गाँधी जैसे आदमी को अत्यन्न कठोर मालूम पड़ सकती है । दोनों हाथ हैं लेकिन एक ठंडा, एक गरम । तो पानी की खबर वे वैसी देंगे । नैतिक पुरुष इसी द्वन्द्व में जीता है, इसके बाहर नहीं जाता । वह
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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