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________________ १८६ महावीर : मेरी दृष्टि मैं जो भीतर है । यह बिल्कुल और तल से कही जा रही है बात । अर्जुन सोचता है कि जब कोई मरता ही नहीं तो मारने में हर्ज ही क्या है ? मारो । और यह भूल निरन्तर चलती रही है। यानी मैं मानता हूँ कि अगर अर्जुन कृष्ण को ठीक समझ जाता तो महाभारत का युद्ध कभी नहीं हो सकता था । लेकिन अर्जुन समझा ही नहीं । और समझने की कठिनाई जो थी वह भी मैं मानता हूँ । कठिनाई यही है कि कृष्ण जिस चेतना में खड़े होकर कह रहे हैं, वह अर्जुन की चेतना नहीं है । सवाल अर्जुन को चेतना को बदलने का है । जो अर्जुन ने समझा, वह उसने किया। अब अगर कबीर का बेटा —कल कबीर मर जाए, और कल उसके घर में खाना न हो तो चोरी कर लाएगा क्योंकि वह क्योंकि खुद कबीर ने साथ दिया था गया था, वह बात और थी । ओर बात और है । यह दो तल ऐसी ही भूल कृष्ण और नहीं मिट सकी। ओर कहेगा कि चोरी में पाप ही क्या है ? चोरी में । लेकिन कबीर जिस चोरी को कमाल उसका बेटा जिस चोरी को चला जाए वह की बातें थीं जिनमें भूल हो जानी सम्भव है । और अर्जुन के बीच हो गई है और वह भूल अब तक हजार-हजार टोकाएँ लिखी गई है गीता पर । लेकिन किसी को नहीं । भूल बुनियादी हो गई है । दो अलग चेतनाओं के बीच में हुई बात में निरन्तर भूल हो गई है क्योंकि जो कहा गया वह समझा नहीं गया । जो इसलिए मेरा जोर निरन्तर यह है कि हम हम चेतना को बदलने के विचार में पड़ें चेतना बदल जाती है तो कर्म बदल. भूल ख्याल में समझा गया वह कहा नहीं गया । कर्म को बदलने के विचार में न पड़ें, क्योंकि चेतना से कर्म आता है। जाते हैं । महावीर की पूरी साधना विवेक की साधना है, संयम की साधना नहीं । क्योंकि विवेक से संयम छाया की तरह आता है । लेकिन निरन्तर यह समझा गया है कि महावीर संयम की साधना कर रहे हैं । और वह बुनियादी भूल है । प्रश्न : मुक्त आत्माओं में करुणा शेष रह जाती है और करुणा भी वासना का ही एक सूक्ष्म रूप है - ऐसा आपने कहा । वासना में सदा द्वन्द्व रहता है । सदा दो रहते हैं - परस्पर विरोधी दो । ऐसी स्थिति में करुणा का विरोधी कौन सा तत्व है, जो मुक्त आत्माओं में शेष रह जाता है ? उत्तर : पहली बात यह है कि करुणा वासना का सूक्ष्म रूप है - ऐसा नहीं । करुणा वासना का अन्तिम रूप है । दोनों में भेद है । अन्तिम रूप से मेरा
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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