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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११ ३४६ इतने दिन से णमोकार का पाठ कर रहा हूँ तो मैं पूछता हूँ उससे क्या हुआ ? वह कहता है, बड़ा अच्छा लग रहा है, शांति लग रही है। फिर थोड़ी देर में मुझसे पूछता है : शांति का कोई उपाय बताइए? मैं कहता हूँ : अब मैं कैसे बताऊँ तुम्हें जब मिल ही रही है शांति । वह कहता है : नहीं, अभी कुछ खास नहीं मिल रही। मैं कहता हूँ : तुम मुझे बिल्कुल साफ-साफ कहो। अगर थोड़ा-थोड़ा लगता है तो करते चले जाओ, धीरे-धोरे ज्यादा लगने लगेगा फिर मुझसे मत पूछो। तुम बिल्कुल ईमानदारी से कहो कि सच में कुछ हुआ है। वह कहता है : कुछ हुआ तो नहीं है। यानी वह जो कह रहा था उसकी भी उसे होश नहीं थी कि वह क्या कर रहा है। एक आदमी कहता है कि मैं मन्दिर जाता हैं रोज । वह फिर भी पूछता है : "शान्ति चाहिए"। उसको पूछो तो वह कहता है कि मन्दिर जाने से शान्ति मिलती है। मिलती है तो फिर अब और क्या शांति चाहिए ? ठीक है, जाओ। वह कभी जागा हुआ ही नहीं है कि वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है, वह भी सुनी-सुनाई बातें दोहरा रहा है। यानी मन्दिर जाने से शांति मिलती है, यह उसने सुना है और वह मन्दिर जाता है। अब वह भी कह रहा है कि बड़ो शांति मिलती है। ___ अगर जगे कोई व्रती तो व्रत से एकदम मुक्त हो जाए। अवती भी समझ ले तो उसके भो समझ में आ सकता है, क्योंकि ऐसे हम अवती भले हों, चाहे हमने कभी कसम खाकर व्रत न लिए हों लेकिन वैसे किसी न किसी रूप में हम सब व्रती हैं । जैसे कि आपने शादी की तो पत्नीव्रत या पतिव्रत लिया। आपको ख्याल में नहीं है। मन्दिर में जाकर नहीं लिया जाता, वह तो हम चौबीस घंटे जो भी कर रहे हैं, उसमें व्रत पकड़ रहे हैं। और अगर हम जाग जाएं तो हमको पता चले कि कुछ हुआ नहीं है उस व्रत से। चीजें कहीं बदली नहीं हैं। और चित्त वैसा ही रह गया है जैसा था। चित्त की वही दौड़ हैं, वही भाग है। वह तो सभी चीजें अनुभव से आती हैं लेकिन जिन्दगी में व्रत चल हो रहे हैं चौबीस घंटे । जैसे एक व्यक्ति है जो कहता है : "मेरे पिता है, इसलिए मैं उनकी सेवा कर रहा हूँ।" यह व्रत ले रहा है सेवा का । इसको पिता की सेवा करने में कोई आनन्द नहीं है। यह कह रहा है : "कर्तव्य है"। यह व्रती आदमी है । पिता की सेवा भी कर रहा है और. पूरे वक्त क्रोध से भी भरा हुआ है कि कब छुटकारा हो जाए, यह पैर दबाने से कब छुटकारा मिले ? लेकिन यह व्रतपूर्वक, नियमपूर्वक कर रहा है। पिता है इसलिए कर रहा है। अब सच बात तो यह है कि इसको कभी आनन्द नहीं मिलेगा। यानी पिता है',
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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