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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ४६१ एक बार हमें यह ख्याल में आ जाए कि सिर्फ मनुष्य के शरीर को बचाना है या मनुष्यता को बचाना है, तो सवाल बिल्कुल अलग-अलग हो जाएंगे। देहधारी मनुष्य को बचाते हैं तो हम हैवान से ऊपर नहीं हैं। और अगर हम उसके भीतर की मनुष्यता को बचाने के लिए सोचते हैं तो शायद पशुहिंसा किसी भी तरह ठीक नहीं ठहराई जा सकती। लेकिन कहा जाएगा कि फिर आदमी बचेगा कैसे ? मेरा कहना है कि आदमी बचने के उपाय खोज लेता है जैसे कृत्रिम खाद्य बनाए जा सकते हैं। जितना पृथ्वी भोजन देती है उससे करोड़ गुना भोजन समुद्र के पानी से निकाला जा सकता है, हवाओं से सीधा भोजन पाया जा सकता है। एक बार यह तय हो जाए कि मनुष्यता मर रही है तो फिर हम मनुष्य को बचाने के हजार उपाय खोज सकते हैं । यह तय न हो तो हम मनुष्य को बचा लेते हैं-देहधारो दिखाई पड़ने वाले मनुष्य को, लेकिन भोतर कुछ गहरा तत्त्व खो जाता है। वह गहरा तत्त्व तभी खो जाता है जब हम किसी को दुःख देने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। किसी को दुःख देने का जो भाव है, वही हमें नीचे गिरा देता है । तो किसी को हम दुःख दें और मनुष्य बने रहें, इन दोनों बातों में कठिनाई है। यह बात सच है कि आज तक ऐसी स्थिति नहीं बन सकी कि एकदम से मांसाहार वन्द कर दिया जाए, एकदम से पशुहिंसा बन्द कर दी जाए तो आदमी वच जाए। लेकिन नहीं बन सकी तो इसलिए नहीं बन सकी कि हमने उस वात को ख्याल में नहीं लिया, अन्यथा बन सकती है। क्योंकि अब हमारे पास वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हो गए हैं जिनसे पशुओं को मारने की कोई जरूरत नहीं। अब तो कृत्रिम मांस भी बनाया जा सकता है। आखिर गाय घास खाकर मांस बनाती है। मशीन भी हो सकता है जो घास खाए और मांस बनाए । इसमें कोई कठिनाई नहीं है। दूध कृत्रिम बन सकता है, मांस कृत्रिम बन सकता है, सब कृत्रिम बन सकता है। मैं अतीत की बात छोड़ देता है जबकि' सब नहीं बन सकता था। लेकिन अब, जबकि सब बन सकता है तो मनुष्य के सामने एक नया चुनाव खड़ा हो गया है और वह चुनाव यह है कि अब जब सब बन सकता है तब पशुहिंसा का क्या मतलब ? पीछे कठिनाइयां थीं। आदमी को बचाना मुश्किल था। शायद अतीत में, शरीर ही नहीं बचाया जा सकता था। जब शरीर ही नहीं बचता था तो आत्मा को क्या बचाते आप ? शरीर बिल्कुल सारभूत था जिसे बचाए तो पीछे आत्मा भी बच सकती थी, मनुष्यता भी बच सकती थी। इसलिए बुद्ध ने समझौता किया कि मरे हुए
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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