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सम्पादकीय
. (प्रथमासंस्करण ) प्रस्तुत प्रवचनमाला की आयोजना के मूल प्रेरणा-स्रोत श्री सुन्दरलाल जैन, प्रोप्राइटर मैसर्स मोतीलाल बनारसोदास हैं। वे धर्म में बहुत रुचि रखते हैं। सत्य की खोज की लगन उनमें बहुत पुरानी है। महावीर और उनके सन्देश को जानने की उनमें उत्कट जिज्ञासा रही है। संसार के सम्मुख महावीर के सन्देश को प्रस्तुत करने का उनका आन्तरिक सङ्कल्प रहा है। इस आशय से उन्होंने अनेक प्रयत्न किये किन्तु सफलता न मिली। किन्तु उनका सङ्कल्प सत्य था क्योंकि वह अन्ततः फलवान् बना। महावीर का मार्ग, जिसे कालं ने धूमिल कर दिया था पुनः आलोकित हुआ रजनीश की उस रश्मि से जो इस ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हो रही है ।
सितम्बर का मास था। श्री सुन्दरलाल जी का आग्रह स्वीकार करके भगवान् श्री रजनीश श्रीनगर में डल झील के किनारे चश्मे-शाही पर उपस्थित थे। गिने चुने लोग उनके श्रोता थे । महावीर पर प्रवचन होते थे और प्रश्नोत्तर चलते थे। वहीं यहाँ प्रस्तुत है। जो भगवान् श्री के सम्पर्क में आये हैं उन्हें ज्ञात है कि उनके अस्तित्व में ही एक सुगन्ध है। उनका जीवन सहजता की मूति है, उनके विचार निविचारता में ले जाने का द्वार है। उनकी वाणी निरन्तर उस पोर इङ्गित करती है जो वाणी से परे है। उनका स्पर्श मानों अपना ही स्पर्श है।
भगवान् श्री की दृष्टि में महावीर को जानने का एक ही उपाय है-सीधा और सरल, जिसमें न शास्त्र की जरूरत है, न सिद्धान्त की, न गुरु की। इसमें न कोई साथी है, न कोई संगी है। अकेलं की उड़ान !है अकेले की तरफ, बीच में कोई भी नहीं। जरा भी बीच में ले लेते हैं किसी को तो भटकन शुरू हो जाती है।
यह प्रेम का मार्ग है । प्रेम में कोई शर्त नहीं होती, कोई पूर्वाग्रह नहीं होता, अतः हम प्रेम के मार्ग से महावीर को जान सकते हैं । जानना मुश्किल नहीं है क्योंकि उनके अनुभव को सूक्ष्म तरंगें, सूक्ष्म प्रकाश में, अस्तित्व की गहराइयों पर प्राज भी सूरक्षित हैं और अगर हम प्रेम भरे चित्त से महावीर