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________________ प्रवचन- ७ २११ उतनी अन्तहीन अनन्त पीड़ाएं हैं उसकी, कि उसमें हम किसी भी भांति थोड़ा भार हल्का कर सकें कि भार न बढ़े इसको भावना पैदा हो जाना भो स्वाभाविक है । बुद्ध भी इस बात को नहीं समझे हैं । गौतम बुद्ध का भो सत्य के अनुभव को संवाहित करने का जो प्रयोग है, वह मनुष्यों से ज्यादा गहराई पर नहीं गया है । सच बात यह है कि न जासस ने, न बुद्ध ने, न जरथुस्त्र ने, न मुहम्मद ने, न किसी दूसरे ने मनुष्य तल से नोचे जो एक मूक जगत् का फैलाव है जहाँ से हम आ रहे हैं, जहाँ हम कभा थे, जिससे हम पार हो गए हैं वहाँ पहुँचने का कोई मार्ग बताया है । उस जगत् के प्रति भो हमारा एक अनिवार्य कर्तव्य है कि हम उसे पार होने का रास्ता बता दें ओर खबर कर दें कि वह कैसे पार हो सकता है । CORPO मेरी समझ यह है कि महावीर ने जिसने पशुओं और जितने पौधों की आत्माओं को विकसित किया है, उतना इस जगत् में किसी दूसरे आदमी ने नहीं किया। यानी आज पृथ्वी पर जो मनुष्य हैं, उनमें से बहुत से मनुष्य सिर्फ इसलिए मनुष्य हैं कि उनको पशुयोनि या उनको पौधे को योनि में या उनके पत्थर होने में महावीर ने संदेश भेजे थे और उन्हें बुलावा भेजा था । इस बात की भी खोज बीन की जा सकती है कि कितने लोगों को उस तरह की प्रेरणा उपलब्ध हुई और वे आगे आए। यह इतना अद्भुत कार्य है कि अकेले इस कार्य की वजह से महावीर मनुष्य मानस के बड़े से बड़े ज्ञाता बन जाते हैं। यानी अगर उन्होंने अकेले सिर्फ एक हो यह काम किया होता तो भी वे मनुष्य जाति के मुक्तिदाताओं में हो नहीं, बल्कि जीवन शक्ति के मुक्तिदाताओं में चिरस्मरणाय ! हो जाते। यह काम बहुत कठिन है क्योंकि नीचे के तल पर तादात्म्य स्थापित करना अत्यन्त दुरूह बात है । उसके कारण हैं । हमसे जो ऊपर है, उससे तादात्म्य स्थापित करना हमेशा सरल है क्योंकि हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है, उसके तादात्म्य से | यह कहना बहुत सरल है कि 'मैं परमात्मा हूँ' लेकिन यह कहना बहुत कठिन है कि 'मैं पशु है ।' चूंकि नोचे अहंकार को चोट लगती है, ऊपर अहंकार को तृप्ति मिलती है, इसलिए हम सब ऊपर जाना चाहते हैं; हमारी गहरी आकांक्षा ऊपर जाने की है, हमारा चित्त ऊपर की तरफ उन्मुक्त होता है। जैसे नदी है, समुद्र की तरफ भाग रही है। समुद्र को तरफ भागना बहुत आसान है क्योंकि ढाल उस तरफ है, उन्मुक्तता उस तरफ है। लेकिन कोई गंगोत्री की तरफ जाने का विचार 1:
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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