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________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २० तो रोज सड़क से भिक्षुओं को, साधुओं को निकलते देखता हूँ। वजीरों ने कहा कि यह बहुत कठिन है, वर्षो लग सकते हैं । फिर भी हम खोज करेंगे । उन्होंने बहुत खोज-बीन की । आखिर वह खबर लाए कि एक पहाड़ पर एक बूढ़ा है । वह आदमी साधु है । सम्राट् वहाँ गया । वह बूढ़ा एक वृक्ष के पास दोनों पैर फैलाए हुए आराम से बैठा था । सम्राट् जाकर खड़ा हो गया । साधु ने न तो उठकर सम्राट् को नमस्कार किया जैसी सम्राट् की अपेक्षा थी, न उसने पैर सिकोड़े । वह पैर फैलाए ही बैठा रहा । न उसने इसकी कोई फिक्र की कि सम्राट् आया है । वह जैसा बैठा था, बैठा रहा । सम्राट् ने कहा : आप जाग तो रहे हैं न ? खड़े होकर नमस्कार करने का शिष्टाचार भी नहीं निभाते हैं आप ! पैर फैलाकर अशिष्ट ग्रामीणों की तरह बैठे हैं ? मैं तो यह सुनकर आया कि मैं एक साधु के पास जा रहा । वह बूढ़ा खूब खिलखिलाकर हंसने लगा । उसने कहा कि कौन सन्नाट् और कौन साधु ? यह सब नींद के हिस्से हैं। कौन किसको आदर दे ? कौन किससे आदर ले ? अगर साधु के सन्नाद होना छोड़कर आओ। क्योंकि सम्राट् और साधु का बड़ा मुश्किल हो जाएगा। तुम कहीं पहाड़ पर खड़े हो, हम कहीं गड्ढे में विश्राम कर रहे हैं । मेल कहाँ होगा ? मुलाकात कैसे होगी ? से मिलना है तो सम्राट् होना छोड़ कर आओ। और रही पैर सिकोड़ने, अगर शरीर पर ही नजर है तो यहाँ तक आने की कोशिश व्यर्थ हुई । अगर इसी पर ही दृष्टि अटकी है तो नाहक तुम यहाँ चढ़े, वापिस लौट जाओ । पास आना हो तो मेल कैसे होगा ? ६११ साधु फैलाने की बात । सम्राट् को सुन कर लगा कि आदमी असाधारण है । उसके पास कुछ दिन रुका, उसके जीवन को देखा, परखा, पहचाना, बहुत आनन्दित हुआ । जाते वक्त एक बहुमूल्य मखमल का कोट, जिसमें लाखों रुपयों के हीरे-जवाहरात जड़े थे, भेंट करना चाहा । उस साधु ने कहा कि तुम भेंट करो और मैं न लूँ तो तुम दुखी होगे । लेकिन तुम तो भेट करके चले जामोगे । इस जंगल के पशु-पक्षी ही यहाँ मेरे जान-पहचान के हैं । यह सब मुझ पर बहुत हँसेंगे कि बुढ़ापे में भी मुझे बचपन सूझा है । तुम सोचते हो कि करोड़ों की चीज दिए जा रहे हो, लेकिन वे आँख कहाँ हैं जो इसको करोड़ों का समझती हैं । इधर में निपट अकेला हूँ । यह पशु-पक्षी मेरे साथी हैं । ये इनको कंकड़-पत्थर समझेंगे और मुझको पागल समझेंगे । यह कोट तो ले जाओ। किसी दिन कोई बहुमूल्य चीज तुम्हें लगे तो ले आना जिसको यहाँ भी बहुमूल्य समझा जा सके। ये पक्षी, ये आकाश, ये चाँद और तारे भी जिसे बहुमूल्य समझें ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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