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प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७
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भी दिखाई नहीं पड़ रहा है । अगर कोई अंधे से सूरज को जांच करने जाएगा तो सूरज के साथ अन्याय हो जाएगा। सूरज की जांच करनी हो तो सीधी करनी होगी, कोई मध्यस्थ बीच में लेना खतरनाक है क्योंकि तब जांच अधूरी हो जाएगी और मध्यस्थ महत्त्वपूर्ण हो जाएगा। और मध्यस्थ के पास आंखें होंगी तो सूरज हो जाएगा, धोमी आँखें होंगी तो सूरज का प्रकाश धीमा हो जाएगा, अन्धा होगा तो सूरज नहीं होगा ।
सीधा ही देखना जरूरी है। महावीर को भी सीधा देखना जरूरी है। तभी हम पहचान सकते हैं कि उनकी अहिंसा और उनका प्रेम पूर्ण है या नहीं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि हमारी खुद को आँखें इतनी कमजोर होती है कि सीधा देखना मुश्किल हो जाता है। तो हम परोक्ष देखते हैं, किसी और से पूछते हैं। खुद की आँखों की इतनी ताकत भी नहीं कि सूरज के सामने सीषा देख लें। तो हम दूसरों से खबर जुटाने जाते हैं। और यही कारण है कि महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट जैसे लोगों के सम्बन्ध में हम सीधा देखने से बचते हैं । वहाँ भी प्रकाश बहुत गरिमा में प्रकट होता है। वहाँ भी साधारण कमजोर आंखें बन्द हो जाती हैं, देख नहीं पाती हैं। इसलिए हम बीच के गुरुओं को खोजते हैं, आचार्यों को खोजते हैं, टोकाकारों को खोजते हैं, व्याख्याकारों को खोजते हैं। उनके माध्यम से हम देखना चाहते हैं। गीता को हम सीधा नहीं देखना चाहते, टोकाकार से देखना चाहते हैं। हम आँख को सीधा उठाने की कोशिश भी नहीं करते।
प्रश्न : महावीर ने जिन सिद्धान्तों की चर्चा की, जैसे अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनेकान्त-उनका प्रयोगात्मक रूप क्या हो सकता है ?
उत्तर । इस सम्बन्ध में भी बड़ी भूल हुई है। पहली बात यह है कि सत्य अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्य ये सिद्धान्त नहीं है । और इसलिए इनका . सीधा प्रयोग करने की बात हो गलत है । इनका सीधा प्रयोग हो ही नहीं सकता। जैसे एक आदमी भूसा इकट्ठा करना चाहता हो तो उसे गेहूँ बोना पड़ता है खेत में, भूसा नहीं। और अगर वह पागल आदमी भूसा पैदा करने के लिए भूसा हो वो दे तो जो पास का भूसा है वह भी खेत में सड़ जाएगा, कुछ पैदा नहीं होगा। क्योंकि भूसा उप-उत्पत्ति ( बाई प्रोडेक्ट ) है, गेहूँ के साथ पैदा होता है। गेहूँ पैदा होता है तो उसके पीछे वह भी पैदा होता है । गेहूँ पैदा न हो तो अकेला भूसा पैदा करने का कोई उपाय हो नहीं है।