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________________ ५३४ महावीर : मेरी दृष्टि में बृदले, मुँहपट्टी बांधी और साधु हो गया । कल तक असाधु था, आज साधु हो गया । और कल फिर मुंह-पट्टी फेंक दी, वस्त्र बदल लिए फिर असाधु हो गया । यह मुंह-पट्टी, वस्त्र और यह सब का सब जो बाह्य आडम्बर है, अगर किसी को साधु बनाता है तो बड़ी आसान बात है । कोई साधू बन सकता है, फिर असाधु बन सकता है । लेकिन कभी सुना है ऐसा कि कोई साधु हो गया हो, और फिर असाधु हो जाए | क्योंकि जिसने साधुता का आनन्द जाना है, वह कैसे असाधु होने के दुःख में उतरेगा। असल में वह साधु हुआ ही नहीं था, सिर्फ वस्त्र हो बदले थे, सिर्फ वेष ही बदला था, सिर्फ ढोंग बदला था, सिर्फ अभिनय बदला था । अभिनय फिर बदला जा सकता है। जो हमारे ऊपर की बदलाहट है वह हमारे भीतर की बदलाहट नहीं है । महावीर साधु नहीं बने क्योंकि जो साधु बना है, वह कल असाधु बन सकता है । शायद महावीर को पता ही नहीं चला होगा कि वह साधु हो गए हैं । होने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त धीमी, शान्त और मोन है । बनने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त घोषणापूर्ण है । बैंड-बाजे के साथ बनना होता है । बनने की प्रक्रिया भीड़-भाड़ के साथ है, जुलूस के साथ है । बनने की प्रक्रिया और है, होने की प्रक्रिया और है। रात में कली खिल जाती है, फूल बन जाती है, शायद पौधे को भी पता न चलता होगा । कब एक छोटा-सा अंकुर बड़ा पत्ता बन जाता है, शायद पत्ते को भी पता न चलता होगा। आप कब बच्चे थे और कब जवान हो गये, कब जवान थे और कब बूढ़े हो गए, कब जन्मे थे, और कब मर जाएँगे, पता चलेगा क्या ? यह सब चुपचाप हो रहा है । जीवन चुपचाप काम कर रहा है । ठीक ऐसे ही अगर कोई अपनी असाधुता को समझता चला जाए, तो वह एक दिन हैरान होगा कि कब वह साधु हो गया, किस क्षण बदल गया । वेष वही होता है, वस्त्र वही होते हैं, सब वही होता है । लेकिन यह घटना चुपचाप घट जाती है । महावीर न कभी साधु बने और न महावीर ने कभी किसी को कहा कि तुम साधु बनो । हाँ, महावीर को देखने वाले लोग साधु बने और उन्होंने दूसरों को यह समझाया कि साधु बनो । बस देखने में भूल हो जाती है । क्योंकि देखने में हमें 'क्रमिक विकास दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ बाहर की घटनाएं दिखाई पड़ती हैं कि बाहर कल आदमी ऐसा था आज ऐसा हो गया । भीतर का, बीच का सेतु छूट: जाता है । वही मूल्यवान् है ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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