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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ जितना वह बाहर है । हवाएं जो घर के भीतर आ गई है थोड़ी गंदी हो गई हैं। दीवालों ने, सीमाओं ने उनको स्वच्छता छीन ली है, ताजगी छीन ली है। और अगर कोई व्यक्ति घर के भीतर बैठे-बैठे पाता है कि अस्वच्छ हो गया है सब और द्वार के बाहर जाकर आकाश खुले नीचे खड़ा हो जाता है तो हम नहीं कहते है कि उसने घर छोड़ दिया है, हम इतना ही कहते हैं कि घर के बाहर और बड़ा घर है जहाँ और स्वच्छ हवाएं हैं और स्वच्छ सूरज है, और साफ सुन्दर जगह है। आदमी की बनाई हुई दीवालें हैं और गौर से हम देखें तो हमारे मोह की दीवाले हैं जो हमारा घर बनाती हैं। तो मकान बांधे हुए हैं या हमारा 'मेरा' बांधे हुए हैं ? इसे हम जरा ठीक से समझ लें तो हमें दिखाई पड़ेगा 'मेरा' हमारा घेरा है। बहुत गहरे में 'मेरे' का भाव, महत्त्व हमारा मकान है । और ध्यान रहे जो कहता है 'मेरा वह अनिवार्य रूप से शेष को 'तेरे में बदल देता है। जो कहता है 'मेरा' वह शेष .को शत्रु बना लेता है । जो कहता है 'अपना' वह दूसरे को पराया बना देता है। ___ गांधी जी के आश्रम में एक भजन गाया जाता था। 'वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पोर पराई जाने ।' कोई मुझे पढ़कर सुना रहा था तो मैंने कहा कि इसमें थोड़ा सुधार कर लेना चाहिए । असल में वैष्णव जन तो वह है जो पराए को ही नहीं जानता। पराई पोर तो बहुत दूसरी बात है । पराए की पीर को जानना हो तो पराए को मानना जरूरी है, और अपने को भी मानना जरूरी है । वैष्णव जन तो वह है जो जानता ही नहीं कि कोई पराया है, और तभी यह सम्भव भी है कि पराए की पीर उसे अपनी मालूम होने लगे, तभी. जबकि पराया न रह जाए। __ तो जो एक हमारे 'मैं' का घेरा है, वही हमारा घर है-'मेरा घर', 'मेरी पत्नी', 'मेरे पिता', 'मेरा बेटा', 'मेरा मित्र', एक 'मेरे' की हमने दुनिया बनाई हुई है। उस 'मेरे' की दुनिया में हमने कई तरह की दीवालें उठाई हुई हैं-पत्थर की भी उठाई है, प्रेम की भी उठाई हैं, घृणा की भी उठाई हैं, द्वेष की भी, राग की भी। और एक घर बनाया है। जबकि पूछा जाता है कि महावीर ने घर क्यों छोड़ दिया है। क्या घर में ही सम्भव नहीं था? नहीं, घर हो सम्भव नहीं था। घर हो असम्भावना थी। अगर हम बहुत गौर से देखेंगे तो वह जो 'मेरे' का भाव था वही तो असम्भावना थी। वही रोकता था, वही समस्त से नहीं जुड़ने देता था। लेकिन अगर किसी को दिखाई पड़ गया हो कि
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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