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महावीर : मेरी दृष्टि में ज्ञान की जरूरत कम है, ज्ञान तो दूर ही कर देता है और ज्ञान से शायद ही कोई किसी को जान पाता हो। सूचनाएं बाधा डाल देती है। सूचनाओं से शायद ही कोई कभी किसी से परिचित हो पाता हो। वे बीच में बड़ी हो जाती हैं। वे पूर्वाग्रह बन जाती है, पक्षपात बन जाती है। हम पहले से हो जानते हुए होते हैं। जो हम जानते हुए होते हैं वही हम देख भी लेते हैं । जो महावीर को भगवान् मानकर जाएगा उसे महावीर में भगवान् भी मिल जाएंगे। लेकिन वह उसके अपने आरोपित भगवान् हैं । जो महावीर को नास्तिक, महानास्तिक मान कर जाएगा उसे नास्तिक, महानास्तिक भी मिल जाएगा। वह नास्तिकता उसकी अपनी रोपी हुई होगी। जो महावीर को मान कर जाएगा वही पा लेगा। क्योंकि गहरे में हम अन्ततः अपनी मान्यता को निर्मित कर लेते हैं और खोज लेते हैं, और व्यक्ति इतनी बड़ी घटना है कि उसमें सब मिल सकता है । फिर हम चुनाव करते हैं । जो हम मानते जाते हैं, वह हम चुन लेते हैं । और तब जो हम जानते हैं वह जानते हुए लोटना नहीं है। वह हमारी ही मान्यता की प्रतिध्वनि है ।
प्रेम के जानने का रास्ता दूसरा है, ज्ञान के जानने का रास्ता दूसरा है। जान पहले जान लेता है, फिर खोज पर निकलता है। प्रेम जानता नहीं । खोज पर निकल जाता है-अज्ञान में, अपरिचित में । प्रेम सिर्फ अपने हृदय को खोल लेता है, प्रेम सिर्फ दर्पण बन जाता है कि जो भी उसके सामने आएगा, जो भी जो है, वही उसमें प्रतिफलित हो जाएगा। इसलिए प्रेम के अतिरिक्त कोई कभी किसी को नहीं जान सका है। हम सब शान के मार्ग से ही जानते हैं, जीते हैं . इसलिए नहीं जान पाते । महावीर को प्रेम करेंगे तो पहचान जाएंगे, कृष्ण को प्रेम करेंगे तो पहचान जाएंगे। . और भी एक मजे की बात है कि जो महावीर को प्रेम करेगा, वह कृष्ण को, क्राइस्ट को, मुहम्मद को प्रेम करने से बच नहीं सकता। अगर महावीर को प्रेम करने वाला ऐसा कहता हो कि महावीर से मेरा प्रेम है, इसलिए मैं मुहम्मद से कैसे प्रेम करूं, तो जानना चाहिए कि प्रेम उसके पास नहीं है। क्योंकि अगर महावीर से प्रेम होगा तो जो उसे महावीर में दिखाई पड़ेगा वही बहुत गहरे में मुहम्मद में, कृष्ण में, क्राइस्ट में, कनफ्यूसियस में भी दिखाई पड़ जाएगा, जरथ स्त में भी दिखाई पड़ जाएगा। प्रेम प्रत्येक कली को खोल लेता है जैसे सूरज प्रत्येक कली को खोल लेता है। पंखुड़ियां खुल जाती है। और तब अन्त में सिर्फ फूल का खिलना रह जाता है । पंखुड़ियां गैर अर्थ की हो जाती है, सुगंध