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________________ समाधन: प्रवचन- १६ ७४७ चाहता हूँ कि शास्त्रों में हो या न हो, जो स्वयं में खोजेगा वह इनको पा लेगा और स्वयं से बड़ा न कोई शास्त्र है और न कोई दूसरी आप्तता है । · वे मुझसे यह भी पूछ सकते हैं कि मैं किस अधिकार से कह रहा हूँ। तो उनसे पहले यह भी कह देना उचित है कि मेरा कोई शास्त्रीय अधिकार नहीं है । मैं शास्त्रों का विश्वासी नहीं है बल्कि जो शास्त्र में लिखा है, वह मुझे इसीलिए संदिग्ध हो जाता है कि शास्त्र में लिखा है । क्योंकि वह लिखने वाले के चित्त की खबर देता है । मगर जिसके सम्बन्ध में लिखा गया है, उसके चित्त की नहीं । फिर हजारों वर्षों की धूल उस पर जम जाती है । और शास्त्रों पर जितनी धूल जम गई है उतनी किसी और चीज पर नहीं जमी है । मुझे एक घटना स्मरण आती है। एक आदमी एक घर में 'शब्दकोष' बेचने गया। घर की गृहिणी ने उसे टालने के लिए उससे कहा कि 'शब्दकोष' हमारे घर में है । वह सामने टेबिल पर रखा है । लेकिन उस आदमी ने कहा : देवी जी क्षमा करें, वह कोई शब्दकोष नहीं है, वह कोई धर्मग्रन्थ मालूम होता है । स्त्री बड़ी परेशान हुई । वह धर्मग्रन्थ था । पर दूर से टेबिल पर रखी किताब को कैसे वह व्यक्ति पहचान गया । उस देवी ने पूछा : कैसे आप जान गये कि वह धर्मग्रन्थ है । उसने कहा उस पर जमी हुई धूल बता रही है । शब्दकोष पर धूल नहीं जमती । उसे कोई रोज खोलता है, देखता है, पढ़ता है। उसका उपयोग होता है । उस पर इतनी धूल जमी है कि यह निश्चित हो धर्मग्रन्थ है । • सब धर्मग्रन्थों पर धूल जम जाती है क्योंकि न तो हम उनसे जीते है, न जानते हैं । फिर धूल इकट्ठी होती चली जाती है । सदियों की धूल इकट्ठी होती चली जाती है । उस धूल में से पहचानना मुश्किल हो जाता है कि क्या-क्या है ? इसलिए मैंने महावीर और अपने बीच शास्त्र को नहीं लिया है। उसे अलग 1 और सीधा हम उसे ही रखा है। महावीर को सीधा देखने की कोशिश की ही देख सकते हैं जिससे हमारा प्रेम हो। जिससे हमारा प्रेम न हो उसे हम कभी सोधा नहीं देख सकते । और वही हमारे सामने पूरी तरह प्रकट होता है जिससे हमारा प्रेम हो । जैसे सूरज के निकलने पर कली खिल जाती है और फूल बन जाती है। ऐसा ही जिससे भी हम आत्यन्तिक रूप से प्रेम कर सकें, उसका जीवन बन्द कली से खिले फूल का जीवन हो जाता है। कर पाएँ । 1 जरूरत है कि हम प्रेम •
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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