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________________ समापन-प्रवचन-२६ ७४९ बेमानी हो जाती है, रंग भूल जाते हैं। और अन्ततः प्रत्येक फूल में जो घटना गहरी रह जाती है, वह है उसका खिल जाना। महावीर खिलते हैं एक ढंग से, कृष्ण खिलते हैं दूसरे ढंग से। लेकिन जिसने इस फूल के खिलने को पहचान लिया वह इस खिलने को सारे जगत् में सब जगह पहचान लेगा। इन व्यक्तियों में से एक से भी कोई प्रेम कर सके तो वह सबके प्रेम में उतर जाएगा, लेकिन दिखाई उल्टा पड़ता है। मुहम्मद को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करना तो दूर, घृणा करता है। बुद्ध को प्रेम करने वाला, क्राइस्ट को प्रेम नहीं करता है। तब हमारा प्रेम संदिग्ध हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि हमारा प्रेम, प्रेम नहीं है। शायद यह भी गहरे में कोई स्वार्थ है, कोई सौदा है। शायद हम अपने प्रेम के द्वारा भी महावीर से कुछ पाना चाहते हैं। शायद हमारा प्रेम भी एक गहरे सौदे का निर्णय है कि हम इतना प्रेम तुम्हें देंगे, तुम हमें क्या दोगे । और तब हम अपने प्रेम में संकीर्ण होते चले जाते हैं बोर तब प्रेम इतना सीमित हो जाता है कि धूणा में और प्रेम में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्योंकि जो प्रेम एक पर प्रेम बनता हो, और शेष पर घृणा बन जाता हो वह एक पर भी कितने दिन प्रेम रहेगा! घृणा हो जाएगी बहुत । महावीर को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करेगा और शेष को अप्रेम करेगा। अप्रेम इतना ज्यादा हो जाएगा कि वह प्रेम का बिन्दु कब विलीन हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। घृणा के बड़े सागर में प्रेम की छोटी सी बूंद को कैसे बचाया जा सकता है। वह तो प्रेम के बड़े सागर में ही प्रेम की बूंद बच सकती है । घृणा के बड़े सागर में प्रेम की बूंद नहीं बचाई जा सकती। लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे प्रेम की बूंद बच जाए और शेष घृणा का सागर हो। एक मुसलमान फकोर औरत हुई राबिया । कुरान में एक जगह वचन माता है : "शैतान को घृणा करो।" तो उसने उस वचन पर स्याही फेर दी। लेकिन कुरान में कोई सुधार करे, यह तो उचित नहीं है। हसन नाम का एक फकीर उसके घर मेहमान था। सुबह उसने कुरान पढ़ने को उठाई तो देखा उसमें सुधार किया गया है । तो उसने कहा कि यह कोन नासमझ है जिसने कुरान में सुधार किया है । कुरान में तो सुधार नहीं किया जा सकता । राबिया ने कहा कि मुझ को ही सुधार करना पड़ा। हसन ने कहा कि तू नास्तिक मालूम होती है। कुरान और सुधार करने कीम्तेरी हिम्मत ! यह तो बड़ा पाप है । राबिया ने कहा : पाप हो या नहीं,
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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