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________________ महावीर : मेरी दृष्टि में भर का सवाल है । सब खत्म । ओर मुझे वापस भी लोटना है। मैंने उससे कहा कि ठंड तो मुझे लगेगी क्योंकि तू जब डूब जाएगा तब मुझे वापस भी फिर आना है। ६३२ वह एकदम गुस्से में बैठ गया और बोला कि आप मेरे दोस्त हो कि दुश्मन ? आप मेरी जान लेना चाहते हो; मैंने आपका क्या बिगाड़ा है ? मैंने कहा : मैं तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता हूँ और न तुमने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा है । लेकिन अगर तुम जीना चाहते हो तो मैं जीने में साथी हो जाऊंगा । अगर तुम मरना चाहते हो तो मैं उसमें साथी हो जाऊँगा । मैं तुम्हारा साथी हूँ । तुम्हारी क्या मर्जी है । उसने कहा मैं जीना चाहता है । मैंने कहा, तो इतना शोरगुल क्यों मचा रहे थे ? · अब इस आदमी को क्या हुआ ? देखिए । यह आदमी अब भी जी रहा है ! और जब भी मुझे मिलता है तो कहता है : आपने मुझे बचाया है, नहीं तो मैं मर जाता । वे सारे बाहर के लोग मुझे मारने की तैयारी करवा रहे थे । वे जितना मुझे बचाने की बातें करते उतना मेरा जोश बढ़ता चला जाता। आदमी के मन को समझना बड़ा मुश्किल है, एकदम मुश्किल है । और यह भी समझना मुश्किल है कि किस भाँति आदमी का चित्त काम करता है । क्यों महावीर किसी को रोकते हैं, किसी को नहीं रोकते हैं, इसे एकदम ऊपर से नहीं पकड़ लेना है । इसे बहुत भीतर से देखना चाहिए कि महावीर के लिएं क्या कारण हो सकता है । करुणा उनकी समान है । लेकिन व्यक्ति भिन्नभिन्न है। रोकना किसके लिए सार्थक होगा, किसके लिए नहीं सार्थक होगा, यह भी वह जानते हैं । कौन रोकने से रुकेगा, कौन रोकने से बढ़ेगा यह भी वह जानते हैं। कौन किस कारण से बढ़ रहा है, यह भी वह जानते हैं । इसलिए हो सकता है कि दो व्यक्तियों को नहीं, दो सौ व्यक्तियों को भी न रोकते । एक एक व्यक्ति भिन्न-भिन्न है । उनकी सारी व्यवस्था भिन्न-भिन्न है । और उस व्यक्ति को अगर हम गौर से देखेंगे तो उस व्यक्ति के साथ हमें भिन्न-भिन्न व्यवहार करना पड़ेगा । इसका यह मतलब नहीं है कि मैं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न हो जाता हूँ। मैं न भी भिन्न-भिन्न होऊं तब भी प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है, और उसे देख कर मुझे कुछ करना जरूरी है । फिर और भी बहुत सी बातें महावीर देखते हैं, जो कि साधारणतः नहीं देखी जा सकतीं। उनकी मैं इसलिए बात नहीं करता है कि वह एकदम अदृश्य
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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