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________________ ४८२ महावीर : मेरी दृष्टि में 'प्रश्न : आपकी राय में कोई पच्चीसवां तीर्थकर हो सकता है ? उत्तर : होता ही रहता है। जैन मना कर देते हैं तो पच्चीसवा तीर्थकर नम्बर एक बन जाता है किसी दूसरी श्रृंखला का। अगर पच्चीसवां होता तो बुद्ध को अलग शृंखला की जरूरत न पड़ती । बुद्ध पच्चीसवें हो जाते । कठिनाई यह है कि जब भी कोई परम्परा अपने अन्तिम पुरुष को पा लेती है तो फिर वह उसके बाद दूसरों के लिए बार बन्द कर देती है स्वाभाविक रूप से क्योंकि फिर वह उपद्रव नहीं लाना चाहती क्योंकि नई प्रतिभा नया उपद्रव लाती है। इसलिए वह सुनिश्चित हो जाती है कि हमारी बात पूरी हो गई, हमारा शास्त्र पूरा हो गया है, अब हम शृङ्खलाबद्ध हो जाते हैं, अब हम दूसरे को मौका नहीं देंगे। इसीलिए फिर पच्चीसवें को नई शृङ्खला का पहला होना पड़ता है। बुद्ध पच्चीसवें हो गए होते। कोई बाधा न थी। मगर इन्होंने द्वार खोल रखे होते। लेकिन एक और कारण हो गया कि बुद्ध मौजूद थे उसी वक्त । और द्वार बन्द कर देने एकदम जरूरी हो गए। क्योंकि अगर बुद्ध आते हैं तो सब अस्त-व्यस्त हो जाता है। जो महावीर कह रहे हैं उसको अस्त-व्यस्त कर देंगे, नई व्यवस्था देंगे। वह नई व्यवस्था मुश्किल में डाल देगी । इस वजह से एकदम दरवाजा बन्द कर दिया गया कि चौबीस से ज्यादा हो ही नहीं सकते और चौबीसवां हमारा हो चुका है। प्रश्न : यह अनुयायियों ने किया ? उत्तर : यह अनुयायियों की व्यवस्था है सारी। अनुयायो बहुत भयभीत है, एकदम भयभीत हैं। समझ लें कि आप मुझे प्रेम करने लगे और मेरी बात आपको ठीक लगने लगे तो आप एक दिन दरवाजा बन्द कर देंगे क्योंकि आपको लगेगा कि दूसरा आदमी अगर आता है और फिर वह उनको सब बातें गड़बड़ 'कर देता है तो आपको पीड़ा होगी उससे । आप दरवाजा ही बन्द कर देंगे कि बस अब कोई जरूरत नहीं है। इसलिए मुहम्मद के बाद मुसलमानों ने दरवाजा बन्द कर दिया । जीसस के बाद ईसाइयों ने दरवाजा बन्द कर दिया । बुद्ध के बाद बौद्धों ने दरवाजा बन्द कर दिया। एक मैत्रेय को कल्पना चलता है कि कभी बुद्ध एक और अवतार लगे मैत्रेय का । लेकिन वह भी बुद्ध हो लेंगे, कोई दूसरा आदमी नहीं लेगा। यहाँ सबसे ज्यादा प्रभावशाली आदमी इन दो-तीन सौ वर्षों में रमण और कृष्णमूति हैं। लेकिन न तो रमण के पीछे शृङ्खला बन सकी और न
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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