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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१४ YYE कोई सीमा रहे, न कोई बंधन रहे, वह कहाँ है ? वह कैसे मिले, उसकी खोज जारी है। ऐसी खोज वाला व्यक्ति भी दूसरों के पारिवारिक मसन्तोष को मिटाने के लिए उत्सुक हो सकता है, दूसरों के सामाजिक असन्तोष को मिटाने के लिए भी उत्सुक हो सकता है। ऐसा व्यक्ति निपट सन्त भी रह सकता है, क्रान्तिकारी भी बन सकता है, सुधारक भी बन सकता है। लेकिन ऐसे व्यक्ति की स्वयं की चिन्ता इन तलों पर नहीं है। उसकी चिन्ता एक अलग ही तल पर है। और बहुत कम लोग हैं जिनके जीवन में आध्यात्मिक असन्तोष होता है। अगर हम, लोगों के सिर खोल कर देख सकें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे। उनके असन्तोष बहुत ही नीचे तल के होते हैं और जिस तरह के असंतोष होते हैं उस तल पर व्यक्ति होता है। नीत्से ने कहा है कि अभागा होगा वह दिन जिस दिन आदमी अपने से सन्तुष्ट हो जाएगा। अभागा होगा वह दिन जिस दिन मनुष्य की आकांक्षा का तोर पथ्वी के अतिरिक्त और किन्हीं तारों की ओर न मुड़ेगा। हम सबकी आकांक्षाओं के तीर पृथ्वी से भिन्न कहीं भी नहीं जाते। हम सब चीजों से अतृप्त होते हैं, सिर्फ अपने को छोड़कर । एक आदमी मकान से अतृप्त होगा कि मकान ठीक नहीं, दूसरा बड़ा मकान बनाऊँ। एक आदमी अतृप्त होगा कि पत्नी ठीक नहीं है दूसरी पत्नी चाहिए, बेटा ठीक नहीं है दूसरा बेटा चाहिए, कपड़े ठीक नहीं हैं दूसरे कपड़े चाहिए। लेकिन अगर हम खोजने जाएं तो ऐसा आदमी मुश्किल से मिलता है जो न मकान से अतृप्त है, न कपड़ों से, न पत्नी से, न बेटों से, जो अपने से अतृप्त है। और जो कहता है कि मैं स्वयं ठोक नहीं हूँ, मुझे भोर तरह का आदमी होना चाहिए। जब आदमी अपने प्रति ही असन्तुष्ट हो जाता है तब उसके जीवन में धर्म की यात्रा शुरू होती है। महावीर जरूर असन्तुष्ट रहे। वही यात्रा उन्हें वहाँ तक लाई है जहां तृप्ति और सन्तोष उपलब्ध होता है। क्योंकि जिस दिन व्यक्ति अपने को रूपान्तरित । करके उसे पा लेता है जो वह वस्तुतः है उस दिन परम तृप्ति का क्षण आ जाता है। उसके बाद फिर कोई अतृप्ति नहीं। अगर वह फिर जीता है एक ' क्षण भी तो वह दूसरों के लिए ताकि वह उन्हें तप्ति के मार्ग की दिशा दे सके, पर उसकी अपनी यात्रा समाप्त हो जाती है। . ___ आपने पूछा है कि क्या उनका गृहत्याग दायित्व से पलायन नहीं है। मेरा कहना है कि महावीर ने कभी गृहत्याग किया ही नहीं । गृहत्याग वे लोग करते है जिन्हें गृह के साथ आसक्ति होती है। महावीर ने तो वही छोड़ा है जो २६
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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