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________________ महावीर । मेरी दृष्टि में से भी तादात्म्य स्थापित हो जाए, बटेड रसल छूट जाएगा बाहर । उसके पास अपना व्यक्तित्व है। जितने नीचे हम उतरते हैं, उतना वहाँ व्यक्तित्व नहीं है। • इसलिए इस वर्ग में तादात्म्य पूरी जाति से होता है। इस तादात्म्य की स्थिति में जो भी भाव-संकल्प किया जाए वह प्रतिध्वनित होकर उन सारे जीवों तक व्याप्त हो जाता है । जैसे गुलाब के पौधे की जाति से तादात्म्य स्थापित किया गया हो तो उस क्षण में जो भी भाव-तरंग पैदा की जाए वह समस्त गुलाबों तक संक्रमित हो जाती है। ऐसी अवस्था में महावीर ने बहुत समय गुजारा। और ऐसी अवस्था को उपलब्ध करने में उनको बहुत सी बातें करनी पड़ी जो पीछे समझाने वाले को मुश्किल होती चली गई। जैसे महावीर खड़े है, कोई उनके कानों में कीलें ठोक दे, महावीर को पता नहीं चलता। कारण कि पत्थर में कील ठोक दो तो पत्थर को क्या पता चलता है क्योंकि सब करीब-करीब अचेतन है। महावीर के कान में कीलें ठोके जा रहे हैं तो उनको पता नहीं चलता। कारण कि उस समय वे ऐसी चीजों से तादात्म्य कर रहे हैं जिनको पता नहीं चलता कीलें ठोंके जाने से। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न ? जिस प्राणी जगत् से वह सम्बन्ध स्थापित किए खड़े हैं, उस प्राणी को कान में कीला ठोके जाने से पता नहीं चलेगा। इसलिए महावीर को भी कभी पता नहीं चल सकता है। अगर महावीर का कोई हाथ भी काट लेगा तो भी उन्हें पता नहीं चलेगा, जैसे कोई वृक्ष की एक शाखा काट ले। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका तादात्म्य क्या है। हम सब जातते हैं कि लोग अंगारों पर कूद सकते हैं । तादात्म्य किससे है, इस पर सब बात निर्भर करती है। अगर उस व्यक्ति ने किसी देवता से तादात्म्य किया है तो वह अंगारों पर कूद जाएगा, जलेगा नहीं क्योंकि वह देवता नहीं जल सकता है। जो रहस्य है वह कुल इतना है। आदमी तो फौरन जल जाएगा लेकिन अगर उसने अपना तादात्म्य किसी देवता से किया हुआ है, उसके साथ अपने को एक मान लिया है, उसकी धुन में नाचता हुआ चला जा रहा है तो उसके नीचे अंगारों के ढेर लगा देने पर भी उसके पावों पर फफोला नहीं आएगा क्योंकि जिससे उसका तादात्म्य है, चेतना उस वक्त वैसा ही व्यवहार करना शुरू कर देती है। हमारे तादात्म्य पर निर्भर करता है कि हम कैसा व्यवहार करेंगे। यह जो हम मनुष्य है अभी यह भी गहरे में हमारा तादात्म्य ही है। इसलिए मनुष्य को कैसे व्यवहार करना चाहिए, वैसा हम
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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