SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ महावीर : मेरी दृष्टि मैं कर रहे हैं तभी क्रोध लिया है उससे अपना कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता। जब हम क्रोध कर रहे हैं। तभी क्षमा इकट्ठी होनी शुरू हो जाती है; जब हम क्षमा इकट्ठा होना शुरू हो जाता है; जब हम प्रेम कर रहे हैं लगती है; जब हम घृणा कर रहे हैं, तभी प्रेम इकट्ठा होने तभी घृणा इकट्ठी होने लगता है । L यही द्वन्द्व है आदमी का कि जिसको प्रेम करता है, उसको घृणा करता है; जिसको घृणा करता है उसको प्रेम करता है । मित्र सिर्फ मित्र ही नहीं होते, शत्रु भी होते हैं । शत्रु सिर्फ शत्रु ही नहीं होते, मित्र भी होते हैं । इसलिए निरन्तर यह होता रहता है । जब मैं निरन्तर अनुभव करता हूँ कि अगर मुझे कोई आदमी बहुत जोर से प्रेम करने लगे तो मैं जानता हूँ कि यह आदमी जल्दी जाएगा क्योंकि उसकी घृणा इकट्ठी होने लगी है । और मैं इसलिए चिन्तित हो जाता हूँ कि यह आदमी जाएगा और अब इसके बिना जाए लौटने का कोई उपाय नहीं होगा । और अगर कोई आदमी जोर से मुझे घृणा करने लगे, क्रोध करने लगे तो मैं जानता है कि वह आएगा । क्योंकि इतनी घृणा में वह कैसे जियेगा, उसे लौटना पड़ेगा । · महावीर कहते हैं कि सब द्वन्द्व बांधता है दूसरे से, उल्टे से बांध देता 1 इसलिए द्वन्द्व के प्रति जागने से वीतरागता उपलब्ध होती है। न काम; न ब्रह्मचर्य - तब सच में ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है । न क्रोध, न क्षमा-तब सच में ही क्षमा उपलब्ध होती है क्योंकि उससे विपरीत फिर होता ही नहीं । न हिंसा न अहिंसा - तब सच्ची अहिंसा उपलब्ध होती है क्योंकि तब उसके विपरीत कुछ होता ही नहीं । इसलिए बहुत भूल हो जाती है । महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल हो जाता है क्योंकि महावीर की अहिंसा वह अहिंसा नहीं है जो हिंसा के विपरीत है। हिंसा के विपरीत जो अहिंसा है, वह बाज नहीं तो कल हिंसक हो ही जाएगी। महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल है क्योंकि वह हिंसा के विपरीत नहीं है । जहाँ न हिँसा रह गई, न अहिंसा रह गई, वहाँ जो रह गया उसको महावीर अहिंसा कह रहे हैं । / ऐसा लगता है कि हम राग और विराग के बीच अनेक जन्मों में घूम चुके हैं। ऐसा नहीं है कि राग हो राग में ही घूमते रहे हैं। बहुत बार राग हुआ है, बहुत बार बिराग हुआ है । वीतराग कभी नहीं हो सका और वह होगा भी नहीं क्योंकि एक 'अति' पर जाकर ठीक पेन्डुलम दूसरे अति पर जाना शुरू हो जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ इसकी चिन्ता मत करें कि हमें क्या होना -राग या विराग ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy