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महावीर । मेरी दृष्टि
की नहीं तो स्वतन्त्रता कैसी है यह? एक बाप अपने बेटे से कहे कि तुझे मन्दिर जाने की स्वतन्त्रता है, वेश्यालय जाने को नहीं तो यह मन्दिर जाने की स्वतबता कैसी स्वतन्त्रता हुई ? यह तो परतन्त्रता हुई। अगर आप कहें कि मन्दिर जाने की हो तुझे स्वतन्त्रता है बस तू मन्दिर ही जा सकता है, वेश्यालय जाने को स्वतन्त्रता नहीं है, वहाँ तू नहीं जा सकता तो यह स्वतन्त्रता कैसी हुई? यह मन्दिर जाने की स्वतंत्रता को स्वतन्त्रता का नाम देना झूठा है । यह बाप परतन्त्रता को स्वतन्त्रता के नाम से लाद रहा है। लेकिन अगर बाप स्वतन्त्रता देता है तो वह कहता है कि तुझे हक है कि तू चाहे तो मधुशाला जा, चाहे तो मन्दिर जा। तू अनुभव कर, सोच, समझ, जो तुझे ठीक लगे, कर । परम स्वतन्त्रता का मतलब होता है सदा मूल करने की स्वतन्त्रता भी।
प्रश्न : और हमें स्वतन्त्रता के कारण ही भूल होती है ? उत्तर : स्वतन्त्रता के कारण भूल नहीं होती। प्रश्न : चुनाव पुरे का ही होता है ?
उत्तर : यह जरूरी नहीं है। क्योंकि बुरे का चुनाव करने के बाद जिन्होंने भले का चुनाव किया है, वह भी उन्हीं का है। यानी जो मोक्ष गए है, मोक्ष जाने में वे उतना ही चुनाव कर रहे हैं जितना कि संसार में आकर वे चुनाव कर रहे हैं । असल में जो मन्दिर की ओर जा रहा है वह भी उसका चुनाव है जो वेश्यालय की ओर जा रहा है वह भी उसका चुनाव है। जहां तक स्वतन्त्रता का सम्बन्ध है, दोनों बराबर है । स्वतन्त्रता का दोनों उपयोग कर रहे हैं। यह दूसरी बात है कि एक बन्धन बनाने के लिए उपयोग कर रहा है, एक बंधन तोड़ने के लिए उपयोग कर रहा है। यह बिल्कुल दूसरी बात है। और इसके लिए भी हमें स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि अगर मैं बंधन ही बनाना चाहता है और हथकड़ियां हो डालना चाहता हूँ तो दुनिया में मुझे कोई रोक न सके । नहीं तो वह भी परतंत्रता होगी। यानी मान लो कि मैं हथकड़ी डालकर बैठना चाहता है, जंजीरें बांधकर पैरों में और दुनिया मुझे कहे कि यह हम न करने देंगे तो यह परतंत्रता हो जाएगी क्योंकि हथकड़ियां गलने की मुझे स्वतंत्रता है। क्योंकि अन्तिम निर्णायक मैं हूँ और जो मैं कह रहा है वह यह कि अगर सुख को जानना हो तो दुःख की स्वतन्त्रता भोगनी ही पड़ेगी। उसकी ही पृष्ठभूमि में सुख की सफेद रेखाएं उभरेंगी। हम पहीं लोट माते है जहाँ से हम आते है लेकिन न तो हम वही रह जाते है, न वही बिन्दु