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________________ २६२ महावीर : मेरी दृष्टि में गद्य को नहीं रखा जा सकता । इसलिए जब कि स्मृति के सिवाय दूसरा उपकरण न था संरक्षित करने का तो सारे ज्ञान को पद्य में ही बोलना पड़ता था । उसको गद्य में बोलना बेकार था । क्योंकि गद्य में बोला तो उसको याद रखना ही बहुत मुश्किल था । उसको पद्य में बोलने से स्मरण रखने में सुविधा हो जाती थी । आप एक कविता स्मरण रख सकते हैं सरलता से बजाय एक निबन्ध के क्योंकि उसमें एक तुकबन्दी है जो कि आपको गाने की सुविधा देती है । वह स्मृति में जल्दी बैठ जाती है । इसलिए पुराने ग्रन्थ पद्य में हैं । गद्य बिल्कुल नई खोज है। जब लिखा जाने लगा तब पद्य की जरूरत न रही । तुकबन्दी जोड़ने में जो नहीं कहना वह भी मिलाना पड़ता था। सीधा गद्य में लिखा जा सकता है तो फिर नए शब्द आए । इसलिए नई भाषाएँ काव्यात्मक नहीं हैं । पुरानी भाषाएं ही काव्यात्मक हैं जैसे संस्कृत । आजकल की भाषा वैज्ञानिक है । आप कविता भी बोलो तो गणित का सवाल मालूम पड़े । सारा फर्क पड़ता चला जाता है । जो उपकरण उपलब्ध होंगे उनमें ज्ञान प्रकट हो जाएगा । नई कविता बिल्कुल गद्य है क्योंकि उसे पद्य होने की जरूरत नहीं । पुराना गद्य भी पद्य है । नया पद्य भी गद्य है । और यह सब बदलते चले जाते हैं रोज-रोज । जो ज्ञान बनेगा, वह दर्शन से उतरेगा नीचे । दूसरी सीढ़ी पर खड़ा होगा और जो उस युग की ज्ञान-व्यवस्था है, उसका अंग होगा तभी वह सार्थक होगा । फिर वह नीचे उतरेगा तभी चरित्र बनेगा । तो हमारे समाज का जो भीतरी सम्बन्ध है, वह उस पर निर्भर करेगा । आएगा दर्शन चरित्र सब से ज्यादा अशुद्ध रूप होगा क्योंकि उसमें दूसरे उतरेगा चरित्र तक । सब आ गए । ज्ञान और कम अशुद्ध होगा । दर्शन पूर्ण शुद्ध होगा । और दर्शन की उपलब्धि के रास्ते अलग होंगे । चरित्र उसकी उपलब्धि का रास्ता नहीं हैं । प्रश्न : महावीर की नग्नता चरित्र का अंग था, या दर्शन का ? उत्तर : बहुत सी बातें हैं। असल में महावीर को, जैसा मैंने कल रात को कहा, बहुत सी बातें करनी पड़ रही हैं जो हमारे ख्याल में नहीं हैं । वह स्याल में आ जाएं तो हमें पता चल जाएगा कि वह किस बात का अंग था । महावीर की नग्नता उनके ज्ञान का अंग है, चरित्र का नहीं । ज्ञान का अंग इसलिए है कि से , अगर किसी को विस्तीर्ण ब्रह्मान्ड से, मूक जगत् से सम्बन्धित होना है तो बस्त्र एक बाधा है। जितने वस्त्र पैदा होते जा रहे हैं, हैं। नवीनतम वस्त्र चारों तरफ के वातावरण से आपके 'उनमें से बहुत कम भीतर जाता है, बहुत कम बाहर आता है। अलग-अलग उतनी ज्यादा बाधाएँ शरीर को तोड़ देते हैं ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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