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________________ महावीर : मेरी दृष्टि में और सफेद बिल्कुल अलग-अलग है। ठंडा और गर्म बिल्कुल अलग-अलग है। लेकिन अगर अनुभव में सोचने जाएंगे तो ठंडा और गर्म एक ही चीज के दो रूप है, काला और सफेद भी एक ही नमूने के दो छोर हैं। लेकिन जब भी हम प्रकट करने चलेंगे तो हमें फिर विचार का उपयोग करना पड़ेगा। मुहम्मद को, महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को जो अनुभूति हुई है वह तो समय है लेकिन जब वे उसे अभिव्यक्त करते हैं तो वह समग्र नहीं रह जाती। तब वह एक दृष्टि रह जाती है। और इसीलिए जो प्रकट दृष्टियां है, उनमें विरोध पड़ जाता है । दर्शन में कोई विरोध नहीं है लेकिन प्रकट दृष्टि में विरोष है। मैं और आप श्रीनगर आ रहे हैं। श्रीनगर तो एक ही है जिसमें मैं आऊंगा और आप आएंगे। फिर हम दोनों श्रीनगर से गए। फिर कोई हमसे कहेगा कि क्या देखा? जो मैं कहूँगा वह भिन्न होगा, जो आप कहेंगे उससे । श्रीनगर एक था। हम आए एक ही नगर से थे। लेकिन हो सकता है कि मुझे झील पसन्द हो और मैं झील की बात करूं, और आपको पहाड़ पसन्द हो और आप पहाड़ की बात करें। और हो सकता है कि मुझे दिन पसन्द हो मैं सूरज की बात करूं और आपको रात पसन्द हो आप चाँद की बात करें। और हमारी दोनों बातें ऐसी मालूम पड़ने लगें कि हम दो नगरों में गए होंगे। क्योंकि एक चांद की बात करता है एक सूरज की, एक अंधेरे को बात करता है एक उजाले की. एक सुबह की बात करता है एक सांझ की, एक पहाड़ की बात करता है एक झील की। शायद सुनने वाले को मुश्किल हो जाए यह बात कि यह पहाड़ और झील, यह चांद और सूरज, यह रात और दिन-ये सब किसी एक ही नगर के हिस्से हैं। ये इतने विरोधी भी मालूम पड़ सकते हैं कि ताल-मेल बिठाना मुश्किल हो जाए। वे जो खबरें हम ले जाएंगे, वे दृष्टियां होंगी, वे विचार होंगे। लेकिन जो हमने जाना और जिया था, वह दर्शन था। उस दर्शन में श्रीनगर एक था। वहां रात और दिन जुड़े थे, पहाड़ और झील जुड़ी थी, वहाँ अच्छा-बुरा जुड़ा था, वहाँ सब इकट्ठा था। लेकिन जब हम बात करने गए, चुनाव हमने किया, छोटा तो हम अलग खड़े हो गए । और हमने एक दृष्टि से चुनाव किया। वैसे ही कोई बात बोली जाएगी वैसे ही दृष्टि बन जाएगी। और यही बहुत सतरा रहा है कि दृष्टियों को दर्शन समझने की भूल होती रही है और इसलिए नों की एक दृष्टि है, दर्शन नहीं; हिन्दुओं को एक दृष्टि है, दर्शन नहीं; मुसल
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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