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प्रश्नोत्तरप्रवचन-२१
६४५ जिसे हम आत्मानुभूति कहें यहां जब दृष्टियां सब मिट गई, असल में देखने वाला भी मिट गया, असल में वह जगह भी मिट गई जहाँ हम खड़े थे, वह भो मिट गया जो खड़ा हो सकता है, सब मिट गया, मेरी तरफ से कुछ भी न बचा, अब जो मुझे प्रतीति होगी, अब जो अनुभव घटित होगा वह समग्र पटित होगा। तो महावीर का जो दर्शन है, या बुद्ध का या कृष्ण का या क्राइस्ट का या मुहम्मद का वह सदा ही समग्र होगा।
दर्शन कभी भी अधूरा नहीं हो सकता क्योंकि अधूरा बनाने वाली जो भी बातें थीं, वे सब समाप्त हो गई। और एक तरफ से समझें ।
जब तक मेरे चित्त में विचार है, तब तक मेरे पास दृष्टि होगी, दर्शन नहीं होगा। क्योंकि मैं अपने विचार के चश्में से देखूगा। मेरे विचार का जो रंग होगा, वही उस चीज पर भी पड़ जाएगा, जिसे मैं देखंगा। और दर्शन होगा तब जब में निर्विचार हो जाऊँगा, जब कोई विचार मेरे पास नहीं होगा। जब विचार मात्र नहीं होगा, खाली जगह से मैं देखूगा, जहां मेरा कोई पक्ष नहीं, कोई विचार नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धान्त नहीं, मैं हिन्दू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं, जैन नहीं। जब मैं कोई भी नहीं, निपट खाली मन रह गया है वहां से जब देखूगा तो वह जो होगा दर्शन होगा। विचार, वृष्टि तक ले जाता है, निविषार, दर्शन तक।
एक बात और भी समझनी उपयोगी है । दर्शन कितना हो समग्र होसमय होगा हो लेकिन जब वर्शन को कोई प्रकट करने जाएगा तब फिर दृष्टि शुरू हो जाएगी। क्योंकि दर्शन को फिर प्रकट करने के लिए विचार का उपयोग करना पड़ेगा। और जैसे ही विचार का उपयोग किया कि समग्र नहीं हो सकता। असल में विचार को एक व्यवस्था है, वह कभी भी पूरी नहीं हो सकती। विचार चीजों को तोड़कर देखता है। और वस्तु में, सत्य में, सब पीजें जुड़ी हुई हैं। अगर हम विचार से देखने जाएंगे तो जन्म अलग है, मृत्यु अलग है। जन्म और मृत्यु को विचार में जोड़ना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि जन्म बिल्कुल उल्टी चीज है, मृत्यु बिल्कुल उल्टी चीज है। लेकिन वस्तुतः जीवन में जन्म और मृत्यु, एक ही चीज के दो छोर है। वहाँ जन्म अलग नहीं, मृत्यु अलग नहीं। जो जन्म पर शुरू होता है, वही मृत्यु पर बिदा होता है। वह एक ही यात्रा के यो बिन्दु है। पहला बिन्दु जन्म है, बन्तिम विन्दु मृत्यु है। अगर हम जीवन को देखेंगे तो ये इकट्ठे है और अगर विचार से सोचने जाएंगे तो जन्म और मृत्यु अलग-अलग हो जाएंगे। अगर विचार में सोचेंगे तो काला